देख कर ये तस्वीर, मुझे ख़्याल आता है,
कौन है जो जमीं पर, ज़न्नत को लाता है,
हसीं वादियाँ, सर्द हवा, फिज़ा धुली हुई,
मेहरबां कोई मेरे, ख़्वाबों को महकाता है ।
घटा सफ़ेद आसमां में, पर्वतों पे छाई हुई,
ज़र्द रोशनी- ए-आफ़ताब में, है नहाईं हुई,
तन्हाई अमन की, इत्मीनान से आई हुई,
देखे जो इक बार, देखता ही रह जाता है ।
इंसानियत को कहते हैं, बीज मज़हब का,
हम-साये हैं हम, और साया है कुदरत का,
फ़र्क है अग़र तो, तरीका -ए- इबादत का,
कौन कश्म औ' केसर में भी फ़र्क लाता है ।
मैं एक मुसाफ़िर, भटकता ज़ुस्तज़ूँ में तेरी,
रहा हालात से ग़ाफ़िल, बस तलाश में तेरी,
नफ़रत नहीं है मुहब्बत ही, फ़ितरत है मेरी,
फिर कौन है जो दिल में, आग भड़काता है ।
हमनें देखी हैं ये वादियाँ, बर्फ की चादर में,
हुआ क्या जो डूबी है, दरिया-ए-नफ़रत में,
समाये अब किस में, बहा जो ज़हर इतना है,
क्यूँ नहीं जमीं पर, तू खुद ही उतर आता है ।
' रवीन्द्र ',
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