उफ़ ये गर्मी, उफ़ ये तपन,
सूखी धरती , उगले अगन,
जलते पत्ते, दहकते उपल,
लेते छाया का अवलम्बन ।
सूरज ने क्यूँ, जलना सीखा,
लगता है ये, कितना तीखा,
कठोर ह्रदय, होगा वो रुखा,
कौन अरि वो, दे रहा अगन ।
नहीं नदियों में, नीर बचा है,
संचय भी, दिन चार बचा है,
आशा का अब, तार बचा है,
जल्दी से बस, बरसे सावन ।
पानी पीते, पर प्यास सघन,
जल खींचे सूरज कण कण,
लेकर अब आओ, मन्द पवन,
ये अर्ज़ सुनो, दे दो जीवन ।
हे प्रभु सुनो, लो वसुधा रोती,
इन्द्र कहाँ है, अब ये कहती,
अटल कह रही, प्रीत तुम्हारी,
बरसे मेघा, कह दो घन घन ।
' रवीन्द्र '
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