अफ़सोस तो बहुत, तुम्हें भुलाने का,
दस्तूर यही है मगर, मेरे मैखाने का ।
किसी को दबा कर, कोई पनपता है,
उगता है रोज़ सूरज, नये ज़माने का ।तुम शिकायत भी, अब ना कर सकोगे,
देखा है तुमने भी, अन्जाम पुराने का ।
रवीन्द्र कुमार गोयल
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अफ़सोस तो बहुत, तुम्हें भुलाने का,
दस्तूर यही है मगर, मेरे मैखाने का ।
किसी को दबा कर, कोई पनपता है,
उगता है रोज़ सूरज, नये ज़माने का ।
तुम शिकायत भी, अब ना कर सकोगे,
देखा है तुमने भी, अन्जाम पुराने का ।
रवीन्द्र कुमार गोयल
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