किस्सा ना कोई ज़िक्र, ना तेरी बात हो,
कलामे-शायरी की फिर, क्या औकात हो ।
मिले दुआ तो सही , वर्ना तन्हा ही भले,
मशरूफियते दोस्ती, दिल्लगी अहसास हो ।
जाने कितने सिकंदर, समेटे माजी समंदर,
जाना हो फज़ल से, न ग़म -ए- बारात हो ।
मिले माँगने से ग़र, तो करें मौत की दुआ,
कहें क्या उसे जिन्दगी, लगती खैरात हो ।
इश्क़ का तराना , रहे हुस्न की ख़िदमत,
हैं तरन्नुम में दोनों, मानों वस्ले रात हो ।
' रवीन्द्र '
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