जाने क्या हमने, था तुझ में देखा,
जाना तुम्हें अपनी, बख़्त की रेखा ।
अशार ओ' छन्द नहीं, सिर्फ भाव,
याद तेरी, बन गयी, है मेरी पूजा ।
साँस घटती मगर, है अमिट आस,
दर्श की अभिलाष, सबब ना दूजा ।
एक था शुक और एक सारिका,
स्वर जुगल था , कोकिला गूंजा ।
मैं व्यथित और तुम चिर प्रतीक्षित,
कृत विरचित यह, विरह का लेखा ।
' रवीन्द्र '
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