आज किसी ने पूछा मुझसे,
तुझे मुहब्बत तो नहीं मुझसे,
घबराया मैं इस उलझन से,
प्रश्न अजनबी ये कैसा मुझसे ।
गौर किया फिर बोला उससे,
तेरे आने से सिर्फ आता यकीं,
कोई तो है मेरा यहीं पे कहीं,
पर यक़ीनन वो शख्स तू नहीं ।
खफ़ा हो कर बोली वो मुझसे,
हरजाई, जताता प्यार मुझसे,
क्यों नहीं फिर, इक़रार मुँह पे,
न आऊँगी तेरे पास, मैं अब से ।
संभाला बमुश्क़िल मैंने उसको,
समझाया फिर देर तक उसको,
बेशक तू बहुत भाती है मुझको,
पर मैंने कहाँ है बुलाया तुझको ।
न रूप रंग ना कोई सुन्दरताई,
चुप्पी एक तेरी मेरे मन भाई,
बेखुदी में रहता दिल जब भी,
तू खुद ही नज़र आती मुझको ।
बुज़ुर्ग हो या कमसिन बाई,
गाफ़िल हो या सायानी ताई,
बातें वफ़ा की हैं हवा हवाई,
कहना ठीक नहीं मुझे हरजाई ।
लिंगभेद बिन सब संगति पाई,
साथ तू सभी के रहती आई,
फ़ितरत ये न किसी मन भाई,
है कौन फरेबी कौन हरजाई ।
तनहा बे-तन सदा रहती आई,
नाम तभी तो है, तेरा तन्हाई,
तेरे आने से बस अहसासे रब है,
तभी तो तू, सुकूँ का सबब है ।
.........चिराग सिलसिलों के यूँ तसव्वुर में जलते है,
मैं और मेरी तन्हाई, अक्सर ये बाते करते हैं ।
' रवीन्द्र '
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