शक़ इबादत पे, नहीं मुझको करना
मैं रब तेरा, तू मुहब्बत पे यकीं रखना ।
आलम-ए-इश्क़ नहीं, ख़ामोशी सवाल है,
चाहतें नहीं, तू रहमत पे यकीं रखना ।
मुख़ालिफ़ लोग तुझसे, कहेगें नादां भी,
रिन्दगी है, तू रफ़ाक़त पे यकीं रखना ।
डोर अनजान सी, कातिब-ए-तक़दीर की,
नहीं दीदार, तू क़ुरबत पे यकीं रखना ।
चला चल जो भी डगर मिले तुझ को,
मैं फ़र्ज़ तेरा तू मेहनत पे यकीं रखना ।
' रवीन्द्र '
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