पी चूका हूँ जी भर के, साकी तेरे पैमाने से,
बचने को बैचैनी से,अब थोड़ी सी बे-रुखी दे ।
शब औ' सहर मिली, ज़माने का ज़हर भी,
पी रहा हूँ कब से, अब नयी जवानी भी दे ।
दिये हैं अब तलक, मुल्क ने सियासी बहुत,
दिलवाला बे-दाग, अब कोई बैरागी भी दे ।
करूँ परवाह कब तक, मेरे और अपनों की,
जीने को और कोई , मुकम्मल वजह तो दे ।
मैं रोता ज़ार ज़ार, उनकी ख़ुशी की खातिर,
न रोकें मुझे मौला, बस इतनी नसीहत भी दे ।
' रवीन्द्र '
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