आरज़ू -ए- हमराज़ है, रफ़्तार को जरा कम कर लो,
लम्बा है सफ़र जिंदगानी, रफ़्ता रफ़्ता गुजर कर लो।
है अनजान सी डगर , मुक़द्दम दिखता न कोई,
ख़तरे जान हैं बहुत , रात यहीं बसर कर लो ।
लेके निकले थे घर से, बारात जवाँ जज़्बातों की,
बोझिल न हो सफ़र , अरमान जरा कम कर लो ।
बैठो तो पहलू में जरा , सुकूँ कुछ दे सकूँ तुझको ,
हसरत है छोटी सी, मेरे दिल में तुम घर कर लो ।
तबीयत संभलती है यहाँ, फिजाओं में भरी मस्ती,
हसीं है अंजुमने कनीज़, इसे अपनी मंजिल कर लो ।
आराम दूँ अब कलम को, ज़ज्बात जरा ज़ज्ब कर लूँ,
बे-दाग़ ये मेरी मुहब्बत, कहते हैं वफ़ा बदल कर लो ।
'रवि' महताब तो नहीं मुहब्बत, नूर जिसमें गैर का है,
रहेगी आफ़ताब दिलों में, ग़ज़ल बेशक दफ़न कर लो ।
' रवीन्द्र '
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