· रवीन्द्र प्रभात
कहा जाता है कि जब कोई कवि वस्तु जगत में स्थित किसी भाव, घटना या तत्त्व से संवेदित होता है तो वह उसे अपनी समर्थ काव्य भाषा द्वारा सहृदय तक संप्रेषित करने का उपक्रम करता है । वह आपने अभिप्रेत भाव को तद्भव रूप में संप्रेषित करने के लिए अपने सृजन क्षण में, शब्दों की सामर्थ्य एवं सीमा का शूक्ष्म संधान कर उसे प्रयुक्त करता है । काव्य रचना अपने आरंभिक क्षण से ही एक सायास क्रिया के रूप में आरंभ हो जाती है, क्योंकि कवि के मानस कल्प में शब्दों की होड़ सी लग जाती है । यही शब्द श्रृंखलाबद्ध होकर काव्य का रूप ले लेता है । जिस काव्य में हमारे समय के महत्वपूर्ण सरोकारों, सवालों से टकराती एक विशेष रूप और गुणधर्म वाली बात परिलक्षित हो वही समकालीन काव्य है, ऐसा माना जाता है।
"समकालीन शब्द" में एक सहज अतिव्याप्ति है, पर दूसरी ओर इसमें एक निश्चित एतिहासिक परिप्रेक्ष्य को स्पष्ट करने की क्षमता भी है । इसका सौन्दर्य-बोध मानवीय सरोकारों से जुड़ता है और समकालीनता को नितांत समसामयिकता के आग्रह से भिन्न व्यापक अर्थ प्रदान करता है। छायावाद से पूर्व अनगिनत कवि शब्द, अलंकार, छंद, लय, नाद में ही निमग्न फँसे रह जाते थे, खुलकर अभिव्यक्ति का विस्तार नहीं हो पाता था, इसलिए छायावाद के दौरान ही समकालीन हिंदी कविता का बीजारोपण हुआ, किन्तु यह पुष्पित और पल्लवित हुयी प्रगतिवाद के दौरान ।
वैसे छायावाद में ही स्वच्छंदता वादी कल्पना और यथार्थ का संघर्ष प्रकट होने लगा था । कविता अपनी चंदिली मीनारों से बाहर निकालने को बेताब होने लगी थी, जीवन का कर्कश उद्घोष करने को बेचैन दिखने लगी थी यह । शायद इस बात का आभास महाप्राण निराला को छायावाद के दौरान ही हो गया था, इसीलिए उन्होंने छायावाद के भीतर ही छायावाद का अतिक्रमण करके एक नयी काव्य-भूमि तैयार की जो आगे चलकर समकालीन कविता या नई कविता के रूप में परिवर्तित हुई । इस काल में सृजित 'तोड़ती पत्थर', 'कुकुरमुत्ता', 'नए पत्ते' की अनेक कवितायें आधुनिक हिंदी कविता में उभरती हुई यथार्थवादी चेतना का स्पष्ट संकेत देती है ।
इन कविताओं में जीवन के प्रति एक गहरी आसक्ति, ललक अर्थात रागधर्मी जीवनोंमुखता ही रोमांटिक नवीनता का आभास कराती है । हालाँकि कुछ आलोचकों का मानना है कि नई कविता ज्ञान शून्यता में पैदा होती है और ज्ञान के उत्कर्ष से स्वयमेव भाव का अपकर्ष होता है, जबकि इससे अलग तर्क देते हुए समकालीन कविता के प्रवल पक्षधर अज्ञेय और मुक्तिबोध ने इसे सिरे से ख़ारिज़ करते नज़र आते हैं। अज्ञेय का कहना है कि "भाषा को अपर्याप्त मानकर विराम संकेतों से, अंकों और सीधी तिरछी लक़ीरों से, छोटे-बड़े टाईप से, सीधे या उलटे अक्षरों से, लोगों और स्थानों के नामों से, अधूरे वाक्यों से - सभी प्रकार के इतर साधनों से कवि उद्योग करने लगा कि अपनी उलझी हुई संवेदना कि सृष्टि पाठकों तक पहुँचा सके ।" जबकि इसी सन्दर्भ में मुक्तिबोध की टिपण्णी है कि " मैं कलाकार की स्थानान्तारगामी प्रवृति पर बहुत ज़ोर देता हूँ । आज के वैविध्यमय, उलझनों से भरे, रंग-विरंगे जीवन को यदि देखना है तो अपने वैयक्तिक क्षेत्र से एकबार तो उड़कर बाहर जाना ही होगा .... कला का केंद्र व्यक्ति है पर उसी केंद्र को अब दिशाव्यापी करने की आवश्यकता है ।"
यदि इसकी विकासयात्रा पर गौर किया जाए तो समकालीन कविता या नई कविता का बीजारोपण १९३६ के आसपास हुआ, जब कविता में कौंग्रेस और वामपंथी दृष्टिकोण एक साथ परिलक्षित हुए । इस वर्ष को कविता की दुनिया में हुए कुछ बुनियादी बदलाव के रूप में देखा जाता है । इस काल के दौरान हिंदी में जो नई यथार्थवादी काव्यशैली का आगमन हुआ उसमें आधुनिक दृष्टि के साथ देसी लोकचेतना का सार्थक समावेश था ।
हालाँकि नई कविता की एक निश्चित काव्य प्रवृति के रूप में पहचान स्पष्ट हुई 1950 के दौरान, किन्तु केवल एक दशक बाद ही यानी 1960 के बाद एतिहासिक मोहभंग के व्यापक अनुभव के फलस्वरूप कविता की भूमिका में स्पष्ट अंतर आया । यही वह समय था जब केदारनाथ सिंह ने धर्मयुग में प्रकाशित अपने आलेख में "शुद्ध कविता से प्रतिबद्ध कविता की ओर" चलने की सलाह दी । 1980 के बाद कविता सच्चे अर्थों में जीवनधर्मी प्रतीत हुई जब नई कविता को नए विंब के साथ प्रस्तुत करने हेतु कुमार विकल, ज्ञानेन्द्रपति, आलोक धन्वा, मंगलेश डबराल, अरुण कमल, राजेश जोशी, उदय प्रकाश आदि युवा कवियों का आगमन हुआ ।
सभी चरणों में अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज कराने वाले समकालीन कवियों की चर्चा की जाए तो नि:संकोच महाप्राण निराला के बाद अज्ञेय इस दिशा में सर्वाधिक सक्रीय और सम्मानित कवियों में से एक माने गए है । इस वर्ष उनका जन्म शती भी मनाया जा रहा है । जबकि शमशेर को नई कविता का प्रथम नागरिक माना गया है । इनके समकक्ष कवियों में अग्रणी रहे हैं मुक्तिबोध, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, गिरिजा कुमार माथुर, भवानी प्रसाद मिश्र, भारत भूषण अग्रवाल, नरेश मेहता, हरी नारायण व्यास, धर्मवीर भारती, जगदीश गुप्त, ठाकुर प्रसाद सिंह, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, कुँअर नारायण, विजयदेव नारायें शाही,श्री कान्त वर्मा, केदारनाथ सिंह, दुष्यंत कुमार, विपिन कुमार अग्रवाल, कीर्ति चौधरी, मलयज, परमानंद श्रीवास्तव, अशोक वाजपेयी, रमेश चन्द्र शाह, श्री राम वर्मा, धूमिल आदि । इनके बाद के कवियों में अग्रणी रहे हैं कमलेश, कुमार विकल, चंद्रकांत देवताले, देवेन्द्र कुमार, विजेंद्र, प्रयाग शुक्ल, विनोद कुमार शुक्ल, लीलाधर जगूड़ी, ज्ञानेन्द्रपति, वेणु गोपाल, मंगलेश डबराल, ऋतुराज, राजेश जोशी, सोमदत्त, गिरधर राठी, सौमित्र मोहन, नन्द किशोर आचार्य, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी , विनोद भारद्वाज, विष्णु नागर, असद जैदी, अरुण कमल, उदय प्रकाश, स्वप्निल आदि।
उपरोक्त सारे कवि चाहे जिस परिवेश या काल के रहे हों अपने सुक्ष्म एवं जटिल भावों को अभिव्यक्त करने में सफल रहे हैं। अपने भावों के सफल संप्रेषण के लिए सभी ने स्थूल रूप में अथवा दृश्य रूप में नए-नए विम्ब के माध्यम से अभिव्यक्त करते हुए दिखाई देते हैं । कहा भी गया है की सफल कवि वही है जो शब्दों का अद्भुत पारखी हो । शब्द के अन्दर निहित विभिन्न अर्थ छवियों में से अपने अनुभूत भाव के अनुकूल अर्थ निकालने में सफलता प्राप्त कर ले । साथ ही संदार्भानुकुल शब्द चयन काव्य की सर्जन-क्षमता को काफ़ी प्रभावित करता है । किसी शब्द का एक निश्चित अर्थ नहीं होता, बल्कि वह अनेक संभाव्य अर्थ एवं अर्थ छवियों का समूह होता है। सच्ची सृजनात्मकता के मायने तब समझ में आते हैं जब कोई कवि विभिन्न ध्वनियों के समूह और उनके अनेक संभाव्य अर्थ बलयों में से किसी विशेष वलय के रंग को प्रभावशाली एवं व्यंजन-क्षम बनाकर प्रस्तुत कर दे । हिंदी के प्रमुख आलोचक नामवर सिंह ने इस कविता प्रवृति को एक प्रकार के रोमांटिक नवोत्थान की संज्ञा दी है, वहीं मुक्तिबोध उसमें एक 'क्लासिकी' रूझान देखना चाहते थे ।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि कवि के मानस-जगत में उत्थित भाव और विचारों की इन्द्रियानुभूति विंबों में सफल अभिव्यक्ति ही समकालीन काव्य की सच्ची सृजनात्मकता है । समकालीन कवि को समकालीन बने रहने के लिए अपने सूक्ष्म भाव को व्यक्त करने हेतु इन्द्रिय ग्राह्य शब्दों का बड़ा ही सटीक प्रयोग करना होता है, क्योंकि उसके एक-एक शब्द पूरे प्रकरण में इस प्रकार फिट रहते हैं कि उनके संधान पर कोई अन्य पर्यायवाची शब्द रखने से पूरी की पूरी भाव श्रृंखला भरभरा जाती है । निष्कर्ष में यही कहा जा सकता है कि टूटते हुए मिथक और चटकती हुई आस्थाओं के बीच कविता कथ्य-शिल्प और भाव तीनों ही दृष्टिकोण से श्रेष्ठता कि परिधि में आ जाए तभी समकालीन काव्य की सार्थकता है, अन्यथा नहीं । शब्दों की उपयुक्तता को ही ध्यान में रखकर पाश्चात्य विचारक कालरिज ने समकालीन कविता को "श्रेष्ठतम शब्दों का श्रेष्ठतम क्रम" कहा है ।
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