एक दिन जब कहा था तुमने
लिखो इस विषय पर
क्या तुमको ये कविता लगता है ..
तब मुझे लगा था
नहीं ....मैं नहीं लिख सकती
कभी कुछ भी ..... इस पर
कैसे लिख दूँ मैं
आग की लपटों में
उठते धुंए के साथ
जलते हुए मानवों की गंध ..
कैसे लिख दूँ मैं
रोज़ कट रहे सरों को
नशे में लड़खड़ा रहे गरीबों को ..
भूखों की लम्बी कतारों का
कुत्ते की तरह
दोनों के झूठे पत्तलों पे टूटना
मुझको कविता लगता है ...
कैसे लिख दूँ मैं
नंगों को अनायास
जब देखती हूँ किसी दूकान के पास
निहारता हुआ ,ललचाई ,सकुचाई
दृष्टि से
लपकना कपड़ों की ऒर बाहर से
शीशे की दीवारों पर
मुझको कविता लगता है ..
कैसे लिख दूँ मैं
बस केवल पिचके पेट लिए
दिखती पसलियों के साथ
बच्चों का रिक्श्हे के पीछे दौड़ना
मुझको कविता लगता है ...
कैसे लिख दूँ मैं
मेरा और तुम्हारा
और मेरे तुम्हारे जैसों का
रोज़ या अक्सर उनको देखना
बेबसी से ..हैरानी से
कुछ न कर पाना उनके लिए
बस आदर्शों और उमीदों को बांधना
कैसे लिख दूँ मैं की मुझको कविता लगता है
रौनक हबीब
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