Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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नया साल

 

साल भर से,
शानों पे ढो रहा था ख्वाबों की इक गठरी को
कुछ टूटे-फूटे, आधे-अधूरे, धुंधले से ख्वाब
जिन्हें समेटकर इकट्ठा कर लिया था मैंने
और बांध के रख लिया था सर पे
और चलता जा रहा था इक उम्मीद लिए

 

कि अचानक इकतीस दिसम्बर की रात
इक ठोकर सी लगी
मैं ख्वाबों की गठरी लिए औंधे मुंह गिरा
सारे ख्वाब बिखर गए
और बिखर के मर गए

 

मगर इक नाजुक सा, मासूम सा ख्वाब
अभी तक ज़िन्दा था
वो ख्वाब था महबूब से मिलने का ख्वाब
मैंने बड़ी हसरत से उठाया उसे
सहलाया, चूमा और जेब में रख के उसे
दाखिल हो गया नए साल में
शायद इस साल पूरा हो जाए वो ख्वाब-ए-वस्ल

 

 

 

-------©रायसिंह 'सुमन'

 

 

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