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भवानी प्रसाद मिश्र: प्रकृति के कवि

 

डाॅ रीता सिंह
व्याख्याता
का.सि.द.स.विश्वविद्यालय

 



डाॅ कृष्ण दत्त पालीवाल के शब्दों में ”भवानी प्रसाद मिश्र जी का नाम आते ही उनका सदैव मुस्कुरानेवाला मुख आँखों के सामने खिलखिलाने लगता है। चाल में नफासत और बोली में अद्भूत मिठास, पुष्ट शरीर, गेहुँआ रंग उन्नत भाल, सघन भौंहें, सुडौल नासिका, बड़ी और पैनी आँखें, तराशे हुए होंठ और स्नेह भरा प्रभावशाली मुख-मंडल, उनसे बार-बार बात करना अच्छा लगता है। वे शब्दों को बताशे की तरह बाहर लाते हैं। उन्हें देखकर लगता है गोया किसी संत की वाणी का स्वर बह निकला हो। आधुनिक हिन्दी की नई कविता में उनके जैसा प्रियदर्शन व्यक्ति मिलना मुश्किल है।“1

 



डाॅ कृष्ण दत्त पालीवाल के शब्द अपने आप में परिपूर्ण हैं यह बताने में कि भवानी प्रसाद मिश्र न सिर्फ प्रकृति के कवि थे बल्कि वे स्वयं ही पूर्ण प्रकृति थे। प्रकृति ने उन्हें स्वयं के लिए ही गढ़ा था। प्रकृति ने उनकी आँखों को तराशा था, पैनापन भरा था उसमें और बनाया था उसे संवेदनशील ताकि प्रकृति के बदलते परिदृश्य को वे अपने कलम के पैनेपन में भर सकें।


 

 

हरिशंकर परिसाई ने लिखा है - ”भवानी भैया का व्यक्तित्व तूफानी रहा है - उनकी बड़ी-बड़ी आँखें बहुत ‘सेंसेटिव’ हैं और आँखों का उपयोग करना उन्हें बखूबी आता है।“2 इसी तूफानी व्यक्तित्व एवं संवेदनशील आँखों से उन्होंने प्रकृति के हर उपादानों को समझा और विशुद्ध प्रकृति चित्रण के साथ-साथ अपने काव्यों में इसे साधन रुप में भी प्रयोग किया। देखा जाय तो उनके संपूर्ण काव्य संसार में प्रकृति अपनी संपूर्णता में आयी है। कभी कोमल दृश्य के रुप में, कभी प्रेममयी अभिव्यंजना के रुप में और कभी विक्षुब्धता के रुप में।

 




कविवर भवानी प्रसाद मिश्र की रचनाओं के व्यापकता में प्रवेश से पहले यदि हम सिर्फ इनकी रचनाओं की शीर्षक की ही व्याख्या कर लें तो हर मोड़ पर प्रकृति की विविधता दिखने लगेगी।

 




संदर्भ:- 1ण् डाॅ कृष्ण दत्त पालीवाल - भवानी प्रसाद मिश्र का काव्य संसार
पृष्ठ - 36
2ण् प्रो. प्रेमशंकर रघुवंशी (सं.) - भवानी भाई में संकलित हरिशंकर
परिसाई का लेख, पृष्ठ - 137

 




सतपुड़ा के जंगल, सन्नाटा, समयगंधा, अँधेरी रात, असंदिग्ध एक उजाला, आमीन गुलाब पर ऐसा वक्त कभी ना आये, आषाढ़ का पहला दिन, चाँदनी से तरबतर, चार कौए उर्फ चार हौए, तार के खंभे, आसमान खुद, कमल के फूल, कुछ सूखे फूलों के, कोई सागर नहीं,तारों से भरा आसमान उपर, धरती का पहला प्रेमी, धुँधला है चन्द्रमा, पानी वर्षा री, बह नहीं रहे होंगे, बुनी हुई रस्सी, बूँद टपकी नभ से, यह कर्जे की चादर जितनी ओढ़ो उतनी कड़ी शीत है,, सुबह हो गई, सूरज का गोला, सागर से मिलकर, हँसी आ रही है।

 




कविवर मिश्र जी ने न सिर्फ अपनी कविताओं के शीर्षकों में प्रकृति के शब्दों का निरुपण किया बल्कि प्रकृति के प्रमोदमयी सुषमाओं के बीच प्रकृति के साधारण और असाधारण सभी रुपों का चित्रमय और सजीव चित्रण भी किया। उन्होंने प्रकृति के जो सुरम्य चित्र अपनी अधिकांश कविता में खींचे वह तो अद्भूत है ही परन्तु जे उनकी सर्वाधिक लोकप्रिय प्रकृतिपरक रचना रचना ‘सतपुड़ा के जंगल’ अलौकिक है। यह कविता विशुद्ध रुप से प्रकृति की कविता है। इस कविता में जंगल के निर्मल प्रकृति को अविरल जल प्रवाह की भांति उन्होंने प्रस्तुत किया है। नई कविता में छायावादी प्रकृति काव्य की यह कविता एक सुन्दर नमूना है -

 




”सतपुड़ा के घने जंगल
नींद में डूबे हुए से
उँघते अनमने जंगल
झाड़ उँचे और नीचे
चुप खड़े हैं आँख मीचे

 



घास चुप है, कास चुप है, मूक शाल, पलाश चुप है
बन सके तो धँसो इनमें, धँस न पाती हवा जिनमें
सतपुड़ा के घने जंगल, उँघते अनमने जंगल“

 




कवि की तूलिका से घास, कास, शाल, पलाश सभी के मौन बोल पड़ते हैं। पूरी कविता कवि के आरोह अवरोह में डूबती उतराती सतपुड़ा के जंगल में ले जाकर हमें जीवंत कर जाती है।

 



”अटपटी-उलझी लताएँ, डालियों को खींच खाएँ
पैर को पकड़े अचानक, प्राण को कस लें कपाएँ
साँप-सी काली लताएँ, बला की पाली लताएँ
लताओं के बने जंगल, नींद में डूबे हुए से
सतपुड़ा के घने जंगल, उँघते अनमने जंगल“

 



जंगल की भयावता का इतना खूबसूरत और सजीव वर्णन शायद ही कहीं देखने को मिलता है ।

 



अजगरों से भरे जंगल
अगम गति से परे जंगल
सात सात पहाड़ वाले
बड़े छोटे झाड़ वालेे
गरज और दहाड़ वाले
कम्प से कनकने जंगल
उँघते अनमने जंगल।

 



और फिर कवि कहते हैं यह जंगल मौत का घर नहीं है। यह पूर्णतः रसमय है धँसो इनमें डर नहीं है।

 



धँसो इनमें डर नहीं है,मौत का यह घर नहीं है
डतर कर बहते अनेकों, कल-कथा कहते अनेकों
नदी, निर्झर और नाले, इन वनों ने गोद पाले
लाख पंछी, सौ हिरण-दल, चाँद के कितने किरण दल
झूमते वन-फूल, फलियाँ, खिल रहीं अज्ञात कलियाँ
हरित दूर्वा, रक्त किसलय, पूत, पावन, पूर्ण रसमय
लताओं के बने जंगल, नींद में डूबे हुए से
सतपुड़ा के घने जंगल, उँघते अनमने जंगल।“

 




प्रकृति की भयावहता के साथ उसकी कोमलता, उसकी सुन्दरता, उसकी मार्मिकता और उसकी जीवन्तता को ‘सतपुड़ा के जंगल’ में सहज रुप में देखा जा सकता है। यहाँ घास गाती है, ढ़ोल की गूंज उठती है और जंगल में गीत गुनगुनाती है।

 



”इन वनों के खूब भीतर, चार मुर्गे, चार तीतर
पल कर निश्चिन्त बैठे, विजन वन के बीच पैठे
झोंपड़ी पर फूस डाले, गोंड तगड़े और काले
जब कि होली पास आती, सरसराती घास गाती
और महुए से लपकती, मत्त करती बास आती
गूंज उठते ढ़ोल इनके, गीत इनके, बोल इनके
सतपुड़ा के घने जंगल, नींद में डूबे हुए से
उँघते अनमने जंगल।“

 



29 मार्च 1913 ई. को जिला-होशंगाबाद गाँव-टिंगरिया में जन्म लेने वाले कविवर भवानी प्रसाद मिश्र ने 1930 से नियमित कविता लिखना प्रारंभ किया। यह दौर छायावाद के प्रस्थान और नई कविता के आगमन का था। संक्रमणकाल के इस दौर में कवि मिश्र ने बड़े संतुलित रुप में स्वयं को स्थापित किया और काव्य-जननी प्रकृति को अपने कविता का आधार बनाया। छायावाद के गीतात्मकता और नई कविता के यर्थाथ का संयोग कर कवि ने अपनी कविता में प्रकृति के नए-नए रंग भरे।

 




‘दूसरा सप्तक’ में संकलित ‘बूँद टपकी एक नभ से’ में प्रकृति की कोमलता और उसके भाव-सौन्दर्य को देखा जा सकता है -

 



”बूँद टपकी एक नभ से
किसी ने झुक कर झरोखे से
कि जैसे हँस दिया हो
हँस रही-सी आँख ने जैसे
किसी को कस दिया हो
ठगा सा कोई किसी की
आँख देखे रह गया हो
उस बहुत से रुप को
रोमांच रोके सह गया हो“

 



इन पंक्तियों मिश्रजी ने प्राकृतिक बिम्बों की एक माला-सी निर्मित की है। हंसना, ठगा सा रह जाना, रोमांच पर नियंत्रण आदि सिर्फ एक बूँद के टपकने मात्र से इन सारे भाव का सामने आ जाना विशिष्टता की परिधि को लाँधकर कवि के प्रकृति चित्रण की अतिविशिष्टता को दर्शाता है।

 



मिश्रजी की कविता में वत्र्तमान का यथार्थ का चित्रण प्रकृति के माध्यम से बार बार आया है। कवि के अनुसार वत्र्तमान की स्थितियाँ बहुत ही असहज है। सबकुछ अनिश्चित है। प्रकृति भी हो चुका उतना ही असहज और अनिश्चित । कहते हैं -

 



”देखूँ आज सूरज
आता है या नहीं
शाम तक
या सबेरे भी
कल तक“

 



प्रकृति के चतुर चितेरे कवि मिश्रजी को वर्षा ऋतु सर्वाधिक प्रिय रहा है। उन्होंने वर्षा के विभिन्न रुपों का सतरंगी दृश्य इन्होंने अपने काव्य में उकेरा है तभी तो कान्ति कुमार जैन कहते हैं - ”जिस प्रकार कालिदास को वसंत का रविन्द्रनाथ को सरिताओं का एवं निराला को बादलों का कवि कहा जाता है, उसी प्रकार मिश्रजी को हम वर्षा का कवि कह सकते हैं।“1
‘आषाढ़ का पहला दिन’ कविता की एक बानगी देखिए। बारिस के आने के अनोखे दृश्य के साथ-साथ बारिस का इंतजार करते मानव की तिलमिलाहट का जो सुन्दर संयोग और परम्परागत सौंदर्य प्रेमी कवि से माफी मांगते हुए वत्र्तमान के यथार्थ की ओर ध्यान खींचना यह सिर्फ और सिर्फ मिश्रजी की तूलिका ही कर सकती है अन्य किसी की नहीं।

 



हवा का ज़ोर वर्षा की झड़ीए झाड़ों का गिर पड़ना
कहीं गरजन का जाकर दूर सिर के पास फिर पड़ना
उमड़ती नदी का खेती की छाती तक लहर उठना
ध्वजा की तरह बिजली का दिशाओं में फहर उठना
ये वर्षा के अनोखे दृश्य जिसको प्राण से प्यारे
जो चातक की तरह ताकता है बादल घने.कजरारे
जो भूखा रहकरए धरती चीरकर जग को खिलाता है
जो पानी वक़्त पर आए नहीं तो तिलमिलाता है
अगर आषाढ़ के पहले दिवस के प्रथम इस क्षण में
वही हलधर अधिक आता हैए कालिदास के मन में
तू मुझको क्षमा कर देना।

 




संदर्भ:- 1- प्रेमशंकर रघुवंशी (सं.), भवानी भाई, पृष्ठ - 199
‘मेघदूत’ में कवि कहते हैं -

 

 

”हो गया वरदान कवि के स्पर्श से
भर गए सर सरिता वन सब हर्ष से“

 



सच है कविवर मिश्र का स्पर्श शब्दों को जीवंत कर जाता है, दृश्य को प्रत्यक्ष कर जाता है और भर जाती है हर्ष से उनकी कविता और बोल पड़ती है प्यार के गीत -

 



”पीके फूटे आज प्यार के पानी बरसा री।
हरियाली छा गयी हमारे सावन सरसा री।
बदली आयी आसमान से धरती फूली री।
अरी सुहागिन भरी माँग में भूली-भूली री।
बिजली चमकी भाग सखी री, दादुर बोले री।
अन्ध प्राण ही बही, उड़े पंक्षी अनमोले री।
छन-छन उठी हिलोर, मगन मन पागल बरसा री।
पीके फूटे आज प्यार के पानी बरसा री।“

 



यह काव्य छायावाद से प्राप्त बिम्बष्योजना और कवि के शब्दों का सौंदर्य पाकर छायावाद और प्रगतिशील काव्य का मिलन स्थल सा प्रतीत होता है। प्रकृति के सौंदर्य का और मानव ह्दय की आकुलता का जीवंत चित्रण कविवर के प्रायः कविता में देखने को मिलता है। फागुन की सहेली कोकिला उन्हें मदमस्त करती हैं, वे ‘गीत फरोश’ मे कहते है-

 



”तू मुझे दिखती नहीं कुहू मगर सुन पा रहा हूँ
वहीं रहना पर-भृंते मैं भी वहीं आ रहा हूँ
आकाशवाणी-सा तुम्हारा गीत जग में भर गया है
मुझे पागल कर गया है।“

 



प्रकृति के सारे सुरम्य बोध कवि को पागल कर जाते हैं और उनकी लेखनी प्रकृति के सुरम्य चित्रण में निमग्न हो जाती है तब उन्हें डराता नहीं प्रकृति का अंधकार भी।

 



”अँधेरा पार कर जाने का तब जी नहीं होता
हल्के अँधेरे से भारी में
भारी से और भारी में डूबते रहने का जी होता है।

 


शाम को खोलकर द्वार अँधेरे कमरे के
बाहर निकलता हूँ
डूब जाने के ख्याल से और भी ज्यादा फैले-घने
अमावस के अपने हाथों बने
जीवित अँधेरे में।“

 



मानव प्रवृति के अनुरुप कवि जब कभी उब जाता है हर चीज से तब स्वयं मे एक अदम्य तारा की अनूभूति अपनी लेखनी में करता है और लौट आता है प्रकृति के साथ लेखन में -

 



”हर चीज से
उब गया हूँ
लिखने से नहीं उबता
यह अजीब एक तारा है
ज्बतक दिखता है
मैं नहीं डूबता।“

 



इस तरह देखा जाए तो उनका पूरा काव्य संसार प्रकृति से ओत-प्रोत है। वे उबते हैं तो लेखनी में न डूबने वाला तारा देखते हैं , निराश होते हैं तो अँधेरे में उजाला देखते हैं। उनके प्रकृति संसार में गीत का माधूर्य है -

 


ࢯ”पीके फूटे आज प्यार के पानी बरसा री“
तो नई कविता की अलख भी -
”इसलिए हम चलें
सावन में संभाले खेत अपने

 



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गा, उसे इस जोड़ से
आवाज जगती की गूँजा दे।“

 



एक तरफ दुरवस्था का क्षोभ है -
”नगाड़े, नाच और रात
कब से नहीं सुने देखे
देखना सुनना हो तो
कहाँ जाएँ
अब कहाँ है
जंगल में मंगल
बल्कि कहो
कहाँ है जंगल
कहाँ है मंगल“

 



तो दूसरी तरफ व्यंग्य के तीर भी -
”ऋतुएँ अगर आती भी यहाँ
ते शोर में
अपने गीत
क्या खाकर गाती
इसलिए अच्छा ही है
कि प्रकृति यहाँ नहीं बची।“

 



वास्तव में मिश्रजी की कविताओं में प्रकृति को खोजना नहीं पड़ता है। वे बड़ी सहजता से प्रकृति की लीलाभूमि में प्रवेश करते हैं, उनके साथ संबंध बनाते हैं और अपनी लेखनी में उतार देते हैं। उनका खुलापन प्रकृति को भी शिरोधार्य है। प्रकृति भी एक सहचरी की तरह, एक प्रेमिका की तरह उनका हर पल साथ निभाती है। दोनों जब हम अलग करने बैठेंगे तो देखेंगे कि दोनों ही निष्प्राण हैं एक-दूसरे के बिना। वे प्रकृति के वैभव को दुलरारते भी रहे और ललकारते भी रहे ताकि प्रकृति के सौंदर्य के साथ-साथ वत्र्तमान का प्रकृति तनाव भी सामने आ सके और प्रकृति के अस्तित्व की खूबसूरत पहचान बनी रह सके।

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