Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मेरी वह सहेली

 

कई दिनों के बाद आज वह मुझसे मिलना चाह रही थी। उसके मिलने की चाहत मेरे लिए परेशानी का सबब बनती है। हालांकि वह मेरी सबसे अच्छी सहेली है और यदि एक अच्छी सहेली मिलने को आतुर हो तो मन-मयूर को झुम पड़ना चाहिए, पर ऐसा होता नहीं है क्योंकि उसके मिलने का अर्थ है एक नए सवाल से जुझना। जानती थी मैं अपने उलझनों में उलझाकर वह निकल जाएगी और कोई कठोर सत्य को झेलने के लिए मैं तड़पती रह जाऊँगी। ऐसा नहीं है कि उसके सवाल अनर्गल होते हैं या अर्थहीन होते हैं, पर इतने कठोर होते हैं कि क्षणभर को अपना अस्तित्व ही बौना नजर आने लगता है।


वह मेरी सबसे अच्छी सहेली है। नाम है- लतिका। अभी अभी उसने हमारे शहर के सबसे बड़े विद्यालय में एक शिक्षिका के रूप में कार्य प्रारंभ किया है। इससे पहले भी वह एक विद्यालय में शिक्षिका ही थी। जीवन था उसका वह विद ्यालय उसके लिए। वहां के बच्चे सिर्फ उसके विद्यार्थी नहीं थे, उसके मित्र थे, हमराज थे, स्पप्न थे। वहाँ के पल-पल को वह जीती थी।


परिस्थितियाँ बदलीं। विद्यालय बदला। नए विद्यालय का पहला दिन था वह उसका। उत्सुकतावश मैं चली गई थी उससे मिलने। सहज ही प्रश्न किया ‘कैसा रहा विद्यालय का पहला दिन।’ बहुत ही ठंडा सा उत्तर मिला था ‘ठीक ही रहा।’उसका यही जवाब मुझमें उससे मिलने की उत्तेजना कम करता है। क्योंकि मेरी यह सहेली लतिका न सिर्फ व्यवहार से बल्कि अपने कर्म से भी जिन्दादिल इंसान रही है। अपने काम को वह अपनी पूजा मानती है। उसका कहना है ‘कर्म ही ईश्वर है और जो अपने कर्म के प्रति इमानदारी दिखा लेता है उससे बड़ा ईश्वर का पुजारी इस दुनिया में और कोई नहीं है।’ उसने जब अपने कर्मक्षेत्र के बारे में कहा कि ‘ठीक ही रहा’ तभी मैं समझ गई कि बहुत जल्द मुझे एक बड़े तूफानी बवंडर को झेलना होगा। आज उसका मुझसे मिलने की इच्छा इसी बबंडर का एक संकेत था और उस बबंडर का सामना करना सहज नहीं होता है मेरे लिए।


घर पहुँची तो मेरी सहेली रूपि वह बबंडर पहले से ही मेरा इंतजार कर रही थी। मैंने पूछा- कैसी हो, क्या हुआ? क्षणभर मौन रह उसने गहरे नजर से मुझे देखा जैसे मेरे ही सवाल को मुझसे दोहरा रही हो। मैं उसके नजरों से बचने के ख्याल से यह कहते हुए किचन की तरफ गई कि रूको कुछ लेकर आती हुँ, भूख लगी है। ऐसे लगा जैसे उसने मेरी बातों को सुना ही नहीं । बोल पड़ी - ‘मैं वहाँ काम नहीं करूँगी।’ वही हुआ जिसका मुझे डर था। उसके पहले दिन के ठंडे एहसास ने मुझे इस दिन के आने का अनुमान करवा दिया था, पर यह सब इतना जलदी हो जाएगा मैंने नहीं सोचा था क्योंेिक वह मेरी सहेली परिस्थिति से हार मानने वाली नहीं थी। मैं चुप रही। जानती थी वह चुप नहीं रहेगी। चुप रहकर कार्य करना उसकी फितरत नहीं है। परिस्थिति के अति होने पर ही वह कोई कदम उठाती है । निश्चित ही कुछ विशेष हुआ होगा वहाँ।


वह बोली-”मैं मषीन नहीं बन सकती। मैं नम्बरों के खेल की रेफरी नहीं बन सकती। मैं नहीं रहूँगी वहाँ।“ क्षण भर का उसका मौन साल गया मुझे, पर मैं नहीं टोक सकती थी उसे, क्योंकि जानती थी उसका मौन मौन नहीं है उसके भीतर का चित्कार है जो मौन बनकर उसकी गंभीरता को दर्षा रहा है। अभी तुरंत मौन टूटेगा और एक हहाकार मचेगा। वह बोली - ”तुम चुप क्यों हो? पूछोगी नहीं मैं वहाँ क्यों नहीं रहना चाहती? मषीन बनना क्या होता है?“ हमेषा की तरह मेरे जबाव का उसने इंतजार नहीं किया। बोलती गई- ”अच्छा तुम्हीं बताओ गुरू और षिष्य का संबंध क्या होता है? तुम अपनी बच्ची के अध्यापक या अध्यापिका से क्या चाहती हो, सिर्फ कोर्स की किताब का पढ़ाना या यह भी कि वह जरा ध्यान रखे कि वह कहीं भटक ना जाए, पढ़ाई से इतर कुछ गलत ना कर बैठे, सभी के साथ सहयोग से रहे, मिलकर रहे अगर उसे कोई दुविधा हो तो खुलकर बात कर सके।“


उसने मुझे देखा बोली जबाव दो, चुप क्यों हो? तुम एक टीचर से यह चाहती हो या नहीं। मैंने कहा- हाँ! टीचर यह सब करते भी तो हैं। हमें पेरेंट-टीचर मिटिंग में बुलाकर बताया जाता हैं कि हमारे बच्चे क्या कर रहे हैं, उसका क्लास-परफारमेंस क्या है? कैसे पढ़ाने पर उसका परफारमेंस अच्छा होगा? आदि....। जानती थी मेरा जबाव उसे संटुष्ट नहीं करेगा। वह उठी और चली गई।


मैं रोक भी नहीं पाई उसे क्योंकि खुद मैं ही कहाँ अपने जबाब से पा सकी थी संटुष्टि। कई बार मेरी पाँच साल की बच्ची के लिए मुझे उसके स्कूल से बुलाया गया था और बताया गया था कि वह बहुत चंचल है, उसे थोड़ा शांत रहना सिखाइए। वह धीरे लिखती है, तेज लिखना सिखाइए, वह जबाव देने की इच्छा नहीं दिखाती, उसे बोलने की आदत डलवाइए, काॅपी में साफ और सही नहीं लिखती ध्यान दीजिए। मैंने अपनी पाँच साल की नन्हीं बच्ची को यह सोचकर शहर के इस बड़े स्कूल में डाला कि स्कूल में रहने के सारे कायदे वहाँ रहकर सीख जाएगी, मुझे तो पता ही नहीं था कि घर से सीखाकर वहाँ भेजा जाता है सभी कायदे सिर्फ परफार्म करने के लिए। ऐसे में मैं पूर्ण संटुष्टि के साथ अपनी सहेली के प्रश्न का क्या उत्तर देती? फिर भी मैंने उसके उलझे सवालों से छुटकारा के लिए ऐसा जबाब दिया।


वह उठी और चली गई ।मैं समझती हूँ कि वह विद्यालय में क्या चाहती है? वह चाहती है बच्चों का चरित्र-निर्माण, संवेदनात्मक समृद्धि, संपूर्ण विकास, अपनत्व, सम्मान। पर आज निजी विद्यालय, विद्यालय नहीं रहा चरित्र निर्माण का, संवेदना समृद्ध करने का, यह तो बन चुका है व्यवसायिक दौर में अव्वल स्थान पाने के लिए प्रतियोगी तैयार करने का कारखाना और कारखाना में मषीनें होती हैं, उत्पाद होता है, मजदूर होता है, मालिक होता है, पर संवेदना नहीं होती, यह उसे कौन समझाए। क्योंकि समझती तो वह भी है, पर मानना नहीं चाहती। तभी तो मषीन बनने से इंकार करती है। मैं चाहती हूँ उसे समझाना कि आज दौर है नौकरी करने का, पैसा कमाने का। तुम्हारे बच्चे को भी आगे बढ़ना है, उसे पैसे की जरूरत होगी, तुम चुपचाप बन जाओ इस मानसिकता की भागीदार और शांति से काम करो वेतन उठाओ आगे बढ़ो। क्यों फालतू के सवालों में उलझती हो, अपनी शांति खोती हो।


पर मैं उससे नहीं कह पाती यह शब्द क्योंकि मुझे मेरे अपने ही शब्द खोखले नजर आते हैं। अपनी बच्ची को एक अच्छा नागरिक बनाने की चाह में जहाँ मैं घंटों छोड़ती हूँ, वहाँ का माहौल उसके पनपने बढ़ने को सही स्वरूप ना दे और कोई उसके लिए कोई उद्वेलित हो तो मैं संवेदनहीन हो, उसे व्यवहारिकता का पाठ पढ़ाउँ संभव नहीं हो पा रहा है। क्या करूँ, यह भी है समझ से परे। यही वजह है कि जब वह मुझसे मिलना चाहती है तो मैं बेचैन हो जाती हॅूं क्योंकि वह चली जाती है छोड़ जाती है मुझे जुझने को ऐसे ही कई सवालों के साथ।


वह कल फिर आएगी। अपने सवालों का समाधान भी लाएगी क्योंकि वह चुप नहीं बैठती, परिस्थितियों से हार नहीं मानती।वह लाएगी बदलाव अपने विद्यालय में भी क्योंकि है उसके पास शब्द की ताकत, प्यार का भंडार और सभी के लिए मन में है अपार स्नेह। पर मैं सोच में हूँ कि उस एक विद्यालय को मेरी सहेली मिल गई। पर कारखाना बने अन्य विद्यालयों का क्या होगा? मषीन बने गुरूओं में कब बदलाव आएगा और कब उन बच्चों के नसीब भी जागेंगे, कब वह भी कह पाएँगे मैं उत्पाद नहीं हाड़-मांस का पुतला हूँ, मुझे जीने दो, बढ़ने दो, पनपने दो, मत खरीदो मुझे, मत बेचो मुझे, मत मषीन बन जाने को मजबूर करो।


हमें कुछ करना ही होगा, कारखाना बनते विद्यालय को, मषीन बनते बच्चों को समय रहते रोकना ही होगा। मैं तैयार हूँ देने को जबाब अपने सहेली को कि मैं अपनी बच्ची को मषीन नहीं बनने दूँगी। उसमें जगाउँगी संवेदना कि वह अपने विद्यालय का माहौल बदल दे। हर शिक्षक को, हर बच्चे को आज बदलना होगा ताकि मानवीयता मरे नहीं, कोई खुद अपनी जान लेकर मानवता को मारे नहीं।

 

 

रीता सिंह

 

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