सिखाया था माँ ने
उठते ही अपने हथेली के
करना तुम दर्शन
रोज सवेरे ।
बिना नागा यह काम
करती हूँ मै प्रतिदिन
रोज सवेरे।
हथेली की लकीरें
कुछ बड़ी, कुछ छोटी
आकर्षित करती हैं मुझे
रोज सवेरे।
अब तो उन लकीरों से
होती है बातें भी
कुछ खट्टी - मीठी
रोज सवेरे।
पढ़ा था कभी गीता में
सब कुछ कह देती हैं
हाथों की लकीरें।
गीता की वाणी को
अपनी हथेलियों में
सच होते देखती हूँ
रोज सवेरे।
मत करो गंदा इसे
तेरी हूँ मै
हाथों की लकीरें
कहती है मुझसे
रोज सवेरे।
हाथ कभी उठाना
काम भले की करना
हाथों की लकीरें
कहती हैं मुझसे
रोज सवेरे ।
निश्चित ही
जिन हाथों से
होती है बुराई कोई
उसकी माँ ने
नहीं सिखाया होगा
उठते ही अपने हथेली के
करना तुम दर्शन
रोज सवेरे ।
डॉ रीता सिंह
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