Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मन! इतना गूढ़ क्यों है ?

 

 

मन! इतना गूढ़ क्यों है ? क्यों है ये एक अबूझ पहेली जैसा ? जितना हम इसे समझने की कोषिष करते हैं उतना ही उलझते जाते हंै। जितना हम इसे बाँधने की कोषिष करते है उतना ही फँसते जाते हंै। इसके चलने का समय, तरीका, दिषा मुझे तो कमसे कम ज्ञात नहीं हो पाया। और षायद धीरज को भी नहीं ज्ञात हो पा रहा था।
धीरज आज बहुत बेचैन है, वह बहुत देर से कमरे में टहल रहा है ,इस नियत से कि षायद उसे राहत मिले, परन्तु यह उपक्रम इतना असरदार नहीं साबित हो रहा था। उल्टे वह और गहरी सोच में डूबता जा रहा था। धीरज एक विचारषील, व कल्पनाषील व्यक्ति है, परन्तु आज उसकी कल्पनाषीलता, भ्रम की परिधि में पहुँच गई है। अपनी विचारषील बुद्धि से उसने सबको चकित किया था, परन्तु यही विचारषीलता उसे आज उन्माद की सीमा की तरफ धकेल रही थी। वह तय नहीं कर पा रहा था कि किस विचार को पकड़े और किसे छोड़ दे। उसके मन में विचारों का संग्राम चल रहा था, एक ’महासंग्राम’ जिसमें ’विष्वास’ रोज पाला बदल रहा था। विचारों के आघात-प्रतिघात का एक दौर, जिसमें घायल सिर्फ मन हो रहा था। ’इच्छा’ नामक
’कृष्ण विवर’ (ब्लैक होल) उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व को आकारहीन बनाकर अपने अंदर समाहित करता जा रहा था। भावनाओं का सैलाब उसे तिनके की तरह बहा रहा था।
वह इन सब प्राकृतिक घटनाओं को प्रत्यक्ष देख रहा था, परन्तु वह प्रकृति के समक्ष अपने को हर बार असहाय, दुर्बल और विवष ही पाता। वह इस मनः-स्थिति को बदल नहीं पा रहा था।
वह विवष था! वह प्रेम से विवष था!

गाँव के हजारों महत्वाकाँक्षी युवकों की तरह धीरज भी आई0 ए0 एस0 बनना चाहता था। परन्तु धीरज के लिये यह राह षुरू से ही काँटांे भरी थी। धीरज के पिता कपड़े धोकर परिवार का पालन-पोषण करते थे, और आई0 ए0 एस0 ,पी0 सी0 एस0 को राजाओं की या फिर षायद मंगल ग्रह के प्राणियों की वस्तु मानते थे, जन सामान्य को वो इस पद के योग्य ही नहीं समझते थे। वो अपने तीक्ष्ण बुद्धि पुत्र के विचारों व क्षमताओं से सर्वथा अनभिज्ञ थे। षायद ही उन्होंने अपने बेटे से कभी पढ़ाई के विषय पर बात की हो। प्राथमिक षिक्षा मुफ्त और सरकारी कालेज में पढ़ाई सस्ती न होती तो षायद धीरज स्कूल भी नहीं जा पाता। गाँव के स्कूल कालेज के दयनीय, दमनीय, भेदभाव युक्त व अवहेलनात्मक वातावरण में भी धीरज का पढ़ाई का क्रम चलता रहा। परीक्षायें हुई, धीरज बहुत ही सामान्य अंकों के साथ उत्तीर्ण हुआ। यह घटना, धीरज या धीरज के पिता के लिये भले ही सामान्य रही हो, परन्तु धीरज के सहपाठियों व षिक्षकों के लिये यह कौतुहल का विषय था। वो समझ नहीं पा रहे थे कि कक्षा में हर विषय को ध्यान से समझने वाला तथा सबसे वाद-विवाद में अक्सर जीत जाने वाला यह सीधा-सादा, हँसमुख, षरारती, बातूनी लड़का इतने कम अंकों के साथ उत्तीर्ण हुआ।
यह वही समय था जब धीरज ने षहर जाकर पढ़ने की बात पहली बार घर में की थी। उसके घर में तांडव मच गया था धीरज के पिता बिफर पड़े। उन्होंने चिल्लाकर कहा, ’’कपड़े पटकते - पटकते मेरी कमर टूट चुकी है ,और इतनी हैसियत नहीं कि तुम्हें राजाबाबू बनाकर षहर में बिठा दूँ ,मेरे और भी बच्चे हंै, सबको देखना है।’’
धीरज का दिल जल उठा और आँखों में आँसू भर गये, धुँधली आखों में अब सामने खड़े बाप का चेहरा नहीं ऊपर बैठी माँ का चेहरा उतर आया था। धीरज की माँ को गुजरे 10 साल हो गये थे पर आज भी वह अचानक अपनी माँ को याद करके रो पड़ता है। ऐसे मौको पर तो दर्द का सैलाब आँखों से बहने लगता है, मन उसे ढूढ़ने को भागता है जो है ही नहीं। ऐसे वक्त पर धीरज को माँ की कुछ ज्यादा ही याद आती थी।
धीरज ने मन मानकर पास के डिग्री कालेज में प्रवेष ले लिया, विषय के रूप में उसने दर्षनषास्त्र, षिक्षाषास्त्र व अंग्रेजी को चुना। उसे अभी भी अपने ऊपर विष्वास था कि वह अपने जीवन का लक्ष्य पा सकता है। दर्षन उसका प्रिय विषय था, वह ’जीवन की सार्थकता’, ’मनुष्य और प्रकृति’ , ’धर्म’, ’आचरण’, ’मानव व्यवहार’, ’भौतिक व आत्मिक विकास’ आदि विषयों पर अपने मित्रों संग घंटो चर्चा करता। वह अब प्रतिक्षण बदल रहा था। वह महान दार्षनिकों के विचारों व आचरण को पूर्णतः आत्मसात् कर लेना चाह रहा था। परन्तु यथार्थ का धरातल उसके लिये बहुत कठोर था। उसका मस्तमौला स्वभाव उसके पिता के लिये निठल्लापन था, आवारापन था, जिसे उसके पिता हर हाल में बदलना चाहते थे। उसके पिता उसके उच्चषिक्षा के लिये बहुत चिंतित नहीं थे। किसी तरह पैर पड़ कर ,दूसरों से सिफारिष कराकर उसने अपने पिता को कुछ रूपये खर्च करने पर राजी किया था। पिता के लिये बेटे की डिग्री सिर्फ सामाजिक प्रदर्षन व प्रतिष्ठा का विषय थी, पर केन्द्रीय विषय अब भी जीवन-यापन ही था।
फिर भी उन्होंने धीरज को घर के काम से थोड़ी छूट दे रखी थी। लेकिन धीरज का देर रात घर आना उन्हें बिल्कुल नामंजूर था। एक दिन धीरज रात नौ बजे घर पहुँचा, घर में कोहराम मच गया ,धीरज के पिता धीरज से बिना कुछ पूछे फट पड़े! और जो मन आया घंटे भर तक सुनाते रहे। धीरज इन सब घटनाओं को अनदेखा करना चाह रहा था पर कर नहीं पा रहा था। धीरज का आत्मविष्वास, पिता की धारदार घुड़कियों व तानों से कट-कट कर गिरता जा रहा था और उसे पता भी नहीं चल पा रहा था।
फाइनल इयर के आते-आते पिता का धैर्य जवाब दे चुका था अब वे धीरज किताबों, कलमों, कपड़े-लत्तों के नाज नखरे नहीं झेल पा रहे थे। और उधर धीरज आत्मिक उन्नति के पथ पर पागलों की तरह दौड़ा जा रहा था। अब पिता के मन में पुत्र के लिये स्पर्धा का भाव था। उन्हें अपना पुत्र अब प्रतिद्वंद्वी लग रहा था। उनके अनुसार ये समय कुछ उद्यम करने का था, जिसे धीरज व्यर्थ के कार्यांे में गँवा रहा था। और उनकी बातों पर ध्यान नहीं दे रहा था। पिता-पुत्र में आये दिन बहस होने लगी थी। धीरज को अपने पिता के इस अनापेक्षित व्यवहार से बहुत टीस होती थी।
बी0 ए0 की पीरक्षा पास करने के बाद, फिर एक बार धीरज ने बाहर जाकर पढ़ने की बात कही। इस बार पिता ने धक्के मार कर बाहर का रास्ता दिखा दिया।
एक ही झटके में धीरज के सर से छत हट गई, पर पैरों के नीचे जमीन अब भी बाकी थी। धीरज का हौसला डिगा नहीं वह आगे बढ़ गया। बहुत सारी फिल्मों में धीरज ने नायक को घर छोड़ कर ’चमकते’ हुए देखा था, आज उसे खुद में भी एक नायक नजर आ रहा था।
रोज की ही तरह वह आज भी अपने दोस्तों के पास जा बैठा और हमेषा की तरह चर्चा व वाद-विवाद में व्यस्त हो गया। समय का पता ही नहीं चला और रात भी आ गई, काफी देर हो जाने के कारण दोस्त ने उसे रोक लिया। उसने मित्र के साथ खाना खाया, थोड़ी पढ़ाई की और सो गया। सुबह हो गई ,दोपहर भी हो गई पर धीरज इसी उधेड़ बुन में लगा रहा कि वह षहर कैसे जाये, और किसके पास जाये। बहुत डरते-डरते उसने अपने मित्र से पैसों की मदद माँगी, और दोस्त ने मदद कर दी। पर उसके साथ समय जो खेल-खेल रहा था उसकी तो यह षुरूआत थी। अब समय था षहर में जाकर एक ठिकाना ढूँढ़ने की, पर बहुत याद करने पर भी उसे कोई याद नहीं आ रहा था। अचानक उसके मन में एक नाम कौंधा ’रवि’, बड़ी परेषानी उठाने के बाद उसे कहीं से रवि का पता मिला ओर वो षहर की ओर चल पड़ा।
रवि, धीरज को देखकर बहुत खुष हुआ। दोनों ने पुरानी यादों की गठरी खोल दी। धीरज के मन में बहुत से विचार बुलबुले की तरह उठ रहे थे। वह तय नहीं कर पा रहा था कि यथास्थिति रवि से कह दें या छिपाए रहे। तीन दिन बाद आखिर कार उसने रवि को सब बता ही दिया। रवि ने उसकी पीठ पर धीमी थपकी दी। पर जब ये बात रवि के भैया को पता चली तो बात बदल गई। अब कमरे में कोई उससे बात ही नहीं कर रहा उसे लग रहा है जैसे वह अदृष्य हो गया है, किसी को दिख नहीं रहा। रवि व धीरज सात साल बाद मिले थे, पर सात साल बाद मिलने का उत्साह सात दिन भी नहीं टिक पाया।
वह रवि का कमरा छोड़ने की योजना बना ही रहा था कि अचानक रवि के भैया का तेज स्वर उसके कानों में पड़ा, ’’यार अपनी व्यवस्था कर लो!यहाँ नहीं हो पायेगा!’’ अब उसके लिये वहँा रूकना संभव नहीं था वह चुपचाप उठा और बाहर निकल गया।
वह चलता चला जा रहा है पर जा कहँा रहा है उसे कुछ भी नहीं पता। उसे जमीन पर पड़ते अपने कदमों की धमक साफ सुनाई दे रही थी, उसके जीवन में अब यही पाष्र्व संगीत चल रहा था और गीत के रूप में मष्तिष्क में आघात करते उसके विचार। पिता ने तो उसे लगभग 1 सप्ताह पहले घर से निकाला था, परन्तु उसे लगा कि वो आज ’बेघर’ हो रहा है। समय जैसे खिंचता जा रहा था। स्टेषन पर बैठे-बैठे वह आने जाने वाले यात्रियों को देखनें लगा। हर यात्री की कोई न कोई मंजिल, सब भागे जा रहे थे, जल्दी में थे, अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित, केंन्द्रित। पर वो कहँा जा रहा था? उसकी मंजिल क्या होने वाली थी? यही सोच रहा था वो।
समय बदलता है, और व्यक्ति की प्राथमिकताएँ भी बदल जाती हैं और प्रष्न भी। अभी कुछ समय पहले तक वह ये सोचता था कि क्या पढ़ना है? किस विचारक को समझना है? और वह यह सोच रहा है कि, क्या खाना है? कहँा सोना है?
’क्या जीवन यापन का प्रष्न इतना बड़ा होता है, कि वह व्यक्ति की महत्वाकांक्षा को निगल जाता है।’
रात उसने बंेच पर बैठे-बैठे ही बिता दी। कहने की जरूरत नहीं कि यह रात और रातों से ज्यादा लम्बी कटी। पेट भरने के लिये उसे पैसे तो चाहिये ही थे। इसलिये उसने काम ढूंढ़ना षुरू कर दिया वह हर रोज किसी न किसी दुकान पर काम करता और लंच में दूसरा काम ढँूढता। स्टेषन ही अब उसका घर था। कुछ दिन बाद उसने एक पुस्तकालय में नौकरी ढँूढ ली। और वहीं रहने लगा। यह उसके लिये अच्छा था, काम का समय कम, पढ़ने के लिये ढेर सारी किताबें, अच्छा माहौल और पैसा भी, अगर बहुत ज्यादा नहीं तो जीने भर के लिये ही सही । अब धीरज के जीवन में थोड़ी स्थिरता थी। वह अब लक्ष्य पर कंेद्रित कर सकता था। उसने इकट्ठा किये पैसों से एम0 ए0 में प्रवेष ले लिया। इस बार वह आई0 ए0 एस0 -’प्री0’ परीक्षा में बैठा। उसे परिणाम के लिये परीक्षा फल घोषित होने की प्रतीक्षा करने की जरूरत नहीं थी, परिणाम उसे आज ही पता हो गया था। परीक्षा में ऐसे प्रष्न थे जिसके बारे में उसने कभी सुना भी नहीं था। ’और’ तैयारी करने का प्रण करके वह पुस्तकालय लौट आया। धीरे-धीरे उसने अपना एम0 ए0 पूरा किया। इस साल वह पी0 सी0 एस0- ’प्री’0 में बैठा। परीक्षा फल घोषित हुआ, और नतीजा वही ’ ढाक के तीन पात ’ । उसे गहरा धक्का लगा उसकी आँखों में आँसू आ गये, वह सोच में पड़ गया कि आखिर क्या है जो उसे सफल होने से रोक रहा है। लक्ष्य के प्रथम सोपान पर लड़खड़ा कर गिर जाना उसे स्वीकार नहीं था। वह फिर से पढ़ाई में लग गया।
वह पुस्तकालय में आने जाने वाले प्रबुद्ध व्यक्तियों से लगातार संपर्क में था। उसको एक कोचिंग में अंग्रेजी पढ़ाने का अवसर आया। उसका प्रिय विषय तो दर्षन था पर इंटरमीडिएट स्तर पर दर्षन के अध्यापक की विषेष माँग नहीं थी। खैर, उसने यह अवसर जाने नहीं दिया।
तीन वर्ष बीत गए ,अब वह ग्रेजुएट स्तर पर दर्षन भी पढ़ाने लगा। उसने पुस्तकालय की नौकरी छोड़ दी और सारा समय कक्षाओं में ही देने लगा।
’जिस प्रकार दिये में तेल न भरने से समय के साथ¬ साथ रोषनी धीमी पड़ती जाती है, वैसे ही उसके सपनों का रंग हल्का होता जा रहा था।’ वह अभी भी आयोग के फार्म भरता है, पर जैसे खुद को सांत्वना देने के लिये। हारते-हारते वो इतना थक गया है कि जीत से उदासीन हो गया है। उसके किसी मित्र ने उसे बी0 एड0 करने की सलाह दी, उसने झट से मान लिया। अब वह अपने अकांक्षाओं के बोझ से मुक्त हो चुका था। अब उसे बच्चों में ज्ञान बाँटने में आनंद आने लगा था। अब उसे यह एहसास हो चुका था कि उसके जीवन की दिषा बदल चुकी है। वह अब षांति से बच्चों के बीच ही अपना जीवन बिताना चाहता था, आप इसे धीरज की दुर्बलता कह सकते हैं।
धीरे-धीरे धीरज ने बी0एड0 भी पूरा कर लिया। उसके अब बहुत सारे षिष्य थे और उनके बीच वह काफी सम्मानित षिक्षक बन चुका था। सरल हृदय धीरज बच्चों के बीच बच्चा था, और प्रौढ़ों के बीच एक ऐसा अनुभवी व्यक्ति जिसने किताबों के साथ-साथ दुनिया भी पढ़ी है। बच्चों को पढ़ा कर उसे असीम सुख मिलता था बच्चों की सफलता में उसे अपनी सफलता दिखाई पड़ती थी। अब उसके मन में स्थायी भाव ’सर्वश्रेष्ठता’ नहीं ’सहभागिता’ थी।
हाई स्कूल के एक बैच से रीडिंग करवाते समय उसने ध्यान दिया कि एक लड़की का उच्चारण औरों से कहीं अधिक स्पष्ट और सटीक था। यह छोटा सा संकेत उसके अर्द्धचेतन मस्तिष्क में बिना आहट के प्रेवष कर गया। कक्षाएँ चलती रहीं और समय भी। एक दिन धीरज ने कक्षा में उस लड़की से नाम पूँछा, उत्तर मिला, ’’सर आई एम मधूलिका।’’ सामान्य षिष्टाचार से आच्छादित साधारण वाक्य, पर आवाज में भरा आत्मविष्वास नाम से आगे का भी परिचय दे रहा था । धीरज ने इस स्वर में एक पूर्णता का आभास किया। धीरज ने कक्षा में एक रेन्डम टेस्ट लिया, मधूलिका ने टेस्ट में बहुत अच्छा प्रदर्षन किया। उसकीे षैली, षब्द चयन, व्याकरण ज्ञान तुलनात्मक रूप से उसके समकक्षों से बहुत आगे था, हालांकि वह कक्षा की टाॅपर नहीं थी लेकिन फिर भी उसके कार्य में मौलिकता थी, जो उसे ’रट्टू तोताओं’ से अलग करती थी। धीरज मध्ूालिका के प्रदर्षन से बहुत प्रभावित हुआ। बहुत दिनों बाद उसे इतना प्रतिभाषाली व्यक्ति छात्र के रूप में मिला, वह इस बात से बहुत प्रसन्न था। उसे मधूलिका में खुद की झलक दिखाई पड़ रही थी।
’बुद्धिमता व आत्मविष्वास व्यक्ति में चुम्बक जैसा गुण उत्पन्न करते है।’ कक्षा में सभी बच्चे मधूलिका से प्रभावित थे, और मधूलिका ने भी अपनी व्यवहार कुषलता व वाक्पटुता से ’सर्वप्रियता’ का खिताब अपने नाम कर रखा था। हर कोई मधूलिका का प्रषंसक था।
इतनी लगन से काम करते देख धीरज ने एक बार मधूलिका से पूछा, ’’ तुम अपने जीवन में क्या करना चाहती हो।’’ मधूलिका ने उत्तर दिया, ’’ मैं आई0ए0 एस0 बनना चाहती हूँ।’’ धीरज स्तब्ध हो गया, उसके मन में हलचल होने लगी ,मधूलिका अभी भी उसके सामने खड़ी थी, पर उसकी आँखों से ओझल हो गई थी। न जाने क्या उसे गहरे अतीत में खींच ले गया। अचानक मधूलिका की आवाज उसके कानों में पड़ी, ’’ सर! सर!’’ धीरज की तंद्रा टूटी ,वह चैंक कर बोला, ’’ हाँ! आॅल द बेस्ट फॅार योर फ्यूचर! आल द बेस्ट!’’ ’’थंैक्यू सर’’, मधूलिका ने कहा।
मधूलिका चली गई लेकिन धीरज वहीं बैठा सोचता रहा, अपने बारे में, अपने अतीत के बारे में। धीरज को ऐसा लगा कि मधूलिका के अंदर उसके ’मृत स्वप्न’ का ’पुनर्जन्म’ हुआ है। वह व्यग्र हो उठा। इस बार वह अपने सपने को मरने नहीं देना चाहता था। वह मधूलिका को वह सब कुछ बता देना चाहता था जो कि वह अब तक जानता था। हर वो कमजोरी जो उसमें थी वो नहीं चाहता था कि मधूलिका में रहे, हर वो ताकत जो उसमें नहीं थी वो चाहता था कि मधूलिका में हो। धीरज के मन में ’इच्छा’ अब अपना ’माया जाल’ बुन रही थी।
धीरज अब मधूलिका से बात करना चाहता है, बहुत सारी बातें, हर विषय पर ,जितना कि वह जानता है, बिना इस बात को परवाह किये कि मधूलिका भी उन विषयों पर बात करना चाहेगी या नहीं। मधूलिका भी कभी-कभी अपने दार्षनिक से लगने वाले कुछ प्रष्नों के साथ धीरज के सामने खड़़ी हो जाती थी और उनका उत्तर बड़े विस्तार से देता था। पर जब कभी भी धीरज ने मधूलिका से कुछ भी बात करना चाहा तो उसे हमेषा एक अजीब सी बाधा का एहसास हुआ। परन्तु मधूलिका का पास आना उसे अच्छा लगता था।
अपने जन्मदिन पर मधूलिका ने धीरज को घर बुलाया। उसके सभी दोस्त थे पर उसने केक सबसे पहले धीरज को खिलाया। सभी मेहमानों के जाने तक मधूलिका ने धीरज को रोक रखा था। उनके जाने के बाद उसने धीरज को अपने परिवार से मिलाया। मिलन सार, हँसमुख और खुले विचारों वाले लोग। धीरज ने सबको अपना परिचय दिया, और सबने धीरज की खूब प्रषंसा की। षायद मधूलिका ने धीरज के बारे में घर पर काफी चर्चा कर रखी थी। धीरज कुछ ही देर में इस माहौल में सहज हो गया, उसे वहँा बड़ा अपनापन महसूस हो रहा था। अरसे बाद किसी ’परिवार’ में दाखिल होकर वह बड़ी खुषी महसूस कर रहा था। मधूलिका ने धीरज को अपने बचपन का एलबम दिखाया, धीरज को एलबम से ज्यादा मधूलिका का करीब होना प्रफुल्लित कर रहा था। ऐसा संभवतः धीरज के साथ पहली बार हो रहा था, जिससे कि वह खो सा गया था। दिये के मद्धिम प्रकाष में जीने वाला धीरज इतनी सारी रंगबिरंगी रोषनियों और फानूसों के बीच चुँधिया सा गया था। सबने बड़े अपनेपन से धीरज को रोकना चाहा पर सबसे आग्रह पूर्ण स्वर मधूलिका का था। इन खूबसूरत पलों को अपने दिल में समेटे धीरज ने सबसे विदा ली।
धीरज अब काफी स्फूर्त महसूस करने लगा था, उसके आवाज में एक तेजी, एक चपलता आ गई थी। उसके बात करने का ढंग बदल गया था। वह अब रोज क्लास का इंतजार करता। उस इंतजार में एक अजीब सी बेचैनी और घबराहट घुली हुई होती थी और ये कम तभी होती थी जब मधूलिका आती थी।
धीरज अब मधूलिका के परिवार में अनजान नहीं था, और अक्सर ही उनसे मिलने चला जाता था। जब भी धीरज मधूलिका के घर होता था मधूलिका हमेषा धीरज के बहुत नजदीक होती थी। इस करीबी, इस छुवन के मायने मधूलिका के लिए क्या थे ये धीरज को नहीं पता ,पर धीरज के दिल का एक खाली कोना धीरे-धीरे भर रहा था।
इस बीच धीरज एक विचित्र स्थिति से गुजर रहा है ,उसे ऐसा लग रहा है मानो हर पल मधूलिका उसे साथ है। वह बात तो किसी और से कर रहा होता है पर चेहरा मधूलिका का दिखाई पड़ता है, जैसे कि हर बात वो उसे ही सुना रहा हो। उसके हर काम पे जैसे मधूलिका की नजर है। अचानक ही उसे गीतों के अर्थ समझ में आने लगे हैं, जैसे कि सारे उसी के ऊपर लिखे गये हैं। वह अपने इस व्यवहार का कारण नहीं समझ पा रहा था। अपने इन सभी भावों को अपने चेहरे के पीछे छिपाये वह बड़ी ही घबराहट में जिये जा रहा था। वह ये सब किसी से नहीं कहना चाहता था, मधूलिका से भी नहीं। भाव चेहरे के पीछे छिपाये जा सकते हैं, पर आँखों में इरादों का अक्स आ ही जाता है। एक दिन मधूलिका के घर पर एलबम की एक फोटो जिसमें मधूलिका साधारण, किन्तु सुंदर दिख रही थी, को देखकर धीरज बोला, ’’ये फोटो तुम मुझे देना।’’ मधूलिका ने कहा, ’’क्यों ? मेरी फोटो लेकर आप क्या करेंगे?’’ धीरज स्तब्ध हो गया। उसे कोई जवाब नहीं सूझा। इस प्रष्न की उसने अपेक्षा नहीं की थी, उसे लगा कि जैसे वह कोई चोर है जिसे नकब के मुँह पर ही पकड़ लिया गया है। वह हैरान था ,उसका चेहरा व कान जलने लगा ,दिल की धड़कने बढ़ गई फिर भी वह अपने आप को संयत कर के बोला, ’’देखूँगा! और किसलिये होती है फोटो?’’ उसे कोई भी जवाब नहीं मिला।
विद्वानों ने सच ही कहा है, ’’स्त्रियों की अन्र्तदृष्टि बहुत तीव्र होती है वे हमारे अंदर तक बेध सकती हंै, और वो देख सकती हैं जो हम छिपाना चाहते हैं।’’ फिर भी धीरज सामान्य होने का दिखावा जारी रखता है।
धीरज जब तक ये समझता था कि मधूलिका के प्रति उसके आकर्षण के बारे मेें सिर्फ वह जानता हैं और कोई नहीं तब तक उसके व्याकुलता में भी एक निष्चिंतता थी। लेकिन अब, जब उसे यह लगने लगा है कि उसके इरादों की भनक मधूलिका को हो गई है, उसके व्यवहार में व्यग्रता आ गई है। वे अब पहले से कहीं अधिक बेचैन हो उठा है ,वह चाहता है कि मधूलिका को वह अपनी नजरों से दुनिया दिखाए ,अपनी भावना से अवगत कराये, अपनी यादें, अपने सपने, अपनी खुषी, अपना दर्द उससे बाँटे अपने वजूद को निचोड़ कर उसे सामने डाल दे, अपना दिल खोल कर उसके सामने रख दे ,पर यहँा पर वह ठिठक जाता है, जैसे कि अँधेरे कमरे में किसी दीवार से टकरा गया हो। वह स्वयं से प्रष्न करता है, क्यों कर रहा है वो ऐसा?
जब भी वह मधूलिका के पास होता, उसकी ये गुप्त आकाक्षाएँ, गुप्त विचार एक अदृष्य आवरण की भाँति उसके षरीर को जकड़ लेती थीं जो उसकी षारीरिक भाषा को बदल देती थीं या फिर यूँ कहें कि उसकी षारीरिक भाषा पर प्रतिबिंबित होने लगती थीं। उसके स्वर में एक आग्रह झलकता था जिसे मधूलिका के लिये समझना कठिन नहीं था बल्कि बहुत ही सहज था। इस प्रकार वह कुछ न कह कर भी बहुत कुछ कह रहा था और मधूलिका कुछ न सुन कर भी बहुत कुछ सुन रही थी।
किसी से बात करते हुए हमें ऐसा लगता है कि हम अपने षब्दों के माध्यम से ही संवाद स्थापित कर रहे है। परन्तु वास्तव में ऐसा है नहीं, हमारा सम्पूर्ण व्यक्तित्व इसमें षामिल होता है। चेतन मन षब्दों को सुन रहा होता है पर अर्द्धचेतन को षब्दों में रूचि नहीं होती, वह ध्वनि की गहराई उसकी बनावट वजन आदि का मूल्यांकन कर रहा होता है। वह षारीरिक भाषा की दृढ़ता का आकलन कर रहा होता है। विभिन्न स्तरों पर मूल्यांकन की एक सतत् प्रक्रिया चल रही होती है, और रूचि या अरिूच का निर्धारण इनमें से ही कई अनकही बातों के आधार हो जाता है, जिनका व्यक्ति को आभास भी नहीं हो पाता।
धीरज मधूलिका के द्वार पर एक ’याचक’ की भाँति खड़ा था और मधूलिका किसी गर्वीले धनिक की भाँति खड़ी मुस्कुरा रही थी।
कोचिंग में न्यू इयर पार्टी मनाई गई। हमेषा की तरह मधूलिका आज भी धीरज के आस-पास ही थी। मधूलिका ने बड़े ही प्यार से धीरज का कोट उतारकर खुद पहना और उसकी नकल उतारी। इस घटना ने सबको ठहाका मारकर हँसने पर मजबूर कर दिया। धीरज मधूलिका से अब और भी आत्मीयता का अनुभव करने लगा। जिस वस्तु की उसके जीवन में भारी कमी थी जिसके लिये वह आज तक तरसता रहा, उसे वह
’मधूलिका’ में देख रहा था, धीरज के लिये वह वस्तु प्रेम थी, और ’मधूलिका’ प्रेम का स्रोत। यह प्रेम ही था जिसने धीरज को एक अल्हड़ बालिका के सामने बालक बना दिया था। वह बालकों के समान मध्ूालिका के सामने ’उद्धिग्न’ हो उठता था और मधूलिका ’कठोर’।
धीरज का अहम इससे आहत हो जाता था। कभी-कभी धीरज मधूलिका से स्वयं की तुलना करने लगता। उसके मन में अब स्पर्धा का भाव भी आने लगा था। संभवतः अस्वीकृति के भय की यह पूर्व प्रतिक्रिया थी। धीरज को लगा कि मधूलिका उसकी बातों में रूचि नहीं ले रही है, वह व्यग्र हो उठा, उसने स्वयं से प्रष्न किया। क्यों? ऐसा क्यों? उसके इस प्रष्न से विवेक जाग्रत हो उठा। अब विवेक की बारी थी, उसने धीरज के मन में बसी उस तीव्र इच्छा से प्रष्न किया। क्यों? क्यों तू चाहती है कि हर कोई तेरी बात सुने, तुझे चाहे, तेरी होकर रहे? विवेक के इस प्रहार से इच्छा को एक तीव्र आघात पहुँचा। और इच्छा और विवेक में द्वंद्व छिड़ गया। विवेक ने पहले भी अपनी बात कहनी चाही थी परन्तु इच्छा द्वारा उत्पन्न विचारों के कोलाहल में विवेक का स्वर दब सा गया था। विवेक कह रहा था कि तुम ’अपने’ विचारों के स्वामी बनो, दूसरे के विचार उसके अपने हैं उसके स्वामी तुम नहीं हो सकते। परन्तु इच्छा हर वस्तु का स्वामित्व चाह रही थी।
इच्छा के प्रमाद में डूबा धीरज जब भी अपनी याचना भरी साँसे लेकर मधूलिका के पास जाता मधूलिका उसे दुत्कार देती,उसे हर बार विवषता की जलन ही नसीब होती पर मधूलिका से हारना भी धीरज को अच्छा लग रहा था। वह इसमें भी खुष था। दूर खड़ा ’विवेक’ धीरज की इस दयनीय दषा पर तरस खा रहा था, उसे धिक्कार रहा था, कि, तू अपने आत्मा का अपमान कर रहा है, तू उसे अपना सर्वस्व अर्पित करना चाह रहा है जिसके लिये तेरी भावनाओं का कोई मोल ही नहीं है। उसे तो तेरी भवनाएँ चाहिए ही नहीं मूर्ख! तू ये देख क्यों नहीं पा रहा। तू ऊसर में बीज क्यों बिखेरना चाह रहा है। तू किसी एक व्यक्ति को आधार मान कर स्वयं का मूल्यांकन कयों कर रहा है। तू स्वतंत्र अस्तित्व है। तेरे अस्तित्व को किसी अन्य व्यक्ति के अनुमोदन की आवष्यकता नहीं। तू ’याचक’ नहीं ’साधक’ बन। इस माया जाल के बाहर निकल कर देख पूरा संसार तेरी प्रतीक्षा कर रहा है। क्या तू अपने अंदर स्थित गुणों को भूल गया है? या फिर तू सिर्फ सामने खड़े व्यक्ति के गुण ही देखना चाहता है।
धीरज विवेक’ की आवाज सुनकर बाहर निकलने की कोषिष करता है और अगले ही पल इच्छा उसे और गहरे खींच ले जाती। वो कहती कि क्या तूने नहीं देखा था कि वह तुझसे कितने प्यार से बात करती है। तू ही तो बचकानी हरकतें करने लगता है। क्या तुझे उससे संयमित ढंग से बात नहीं करनी चाहिये। क्या तुझे हर समय अपनी बोझिल, समझ में न आने वाली बातें उससे करनी चाहिये? क्या उसने कभी तेरी बात टाली है? वो तेरी हर बात तो मानती है। जब भी तू उसके घर जाता है, क्या वो तेरा ख्याल नहीं रखती? तेरे पास नहीं बैठती? तुझे तो वो एक पल के लिये भी अकेला नहीं छोड़ती, हमेषा तेरे पास रहना चाहती है। तू तो हमेषा उसका मजाक उड़ाने में लगा रहता है। किसे इस तरह का व्यवहार पसंद होगा? क्या तूने नहीं देखा कि जब तू अपनी पिछली जिदंगी में आई लड़कियों के बारे में बात कर रहा था तो उसे बुरा लग रहा था? जब तू बर्थ डे पार्टी में आई दूसरी लड़कियों से बात कर रहा था तो वो चिढ़ रही थी। जब तू पार्टी में काफी देर तक दिखाई नहीं दिया तो तुझे ढँूढ़ते-ढँूढ़ते वो नीचे कमरे तक आई और तुझे साथ लेकर ही ऊपर गई। बार-बार रोकने पर भी जब तू उस दिन नहीं रूका तो क्या उसने झूठ ही कह दिया था? कि, उसकी आँखों में तेरे लिये आँसू आ गये थे। क्या तुझे उसकी भावनाओं की कद्र नहीं? क्या तू इतना निष्ठुर है कि तुझे ये सब झूठ दिखाई पड़ रहा है।?
धीरज फिर से रंगीन सपनों में खो जाता है। लेकिन उसके अंदर की जलन धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थी। उसमें स्वयं को अभिव्यक्त करने की तीव्र उत्कंठा थी लेकिन वह स्वयं को अभिव्यक्त करने में असमर्थ था। उसके अंदर से सब फूटकर बाहर निकलना चाह रहा था, और वो उसे पूरी ताकत से दबाए बैठा था। इस दमन की प्रतिक्रिया बहुत ही तीव्र थी जिसने धीरज को अंदर से पूरी तरह झकझोर दिया था, उसके अंदर उथल-पुथल मची थी। इस दारूण यातना से एक ही वस्तु धीरज को मुक्त कर सकती थी ओर वो था मधूलिका के समक्ष अपने प्रेम का ’रहस्योद्घाटन’।
धीरज ने दुनिया की परवाह नहीं की। सत्य बोलने से भी कभी नहीं डरा, पर आज वो घबरा रहा था। उसे इस सत्य को सबके सामने स्वीकार करने में भय लग रहा था। उसे डर था कि उसके निष्छल, पवित्र प्रेम की भावना को लोग वासनामात्र ही समझेंगे, इसमें छिपे समर्पण की तरफ तो लोग देखेंगे भी नहीं। फिर उसे मधूलिका का भी ख्याल आ रहा था। वो क्या सोचेगी, कहीं वो उसका तिरस्कार तो नहीं कर देगी, उसके इस कृत्य की भत्र्सना तो नहीं करने लगेगी। या फिर वो उसे सहर्ष गले लगा कर स्वीकार कर लेगी, और ये कहेगी कि, आपने इतनी देर क्यों लगा दी कहने में, मैं तो कब से इस दिन की प्रतीक्षा कर रही थी। धीरज घण्टों इन्हीं विचारों में डूबा रहा। फिर इस निष्चय के साथ रूका कि वह अपनी भावनाएँ सिर्फ मधूलिका के समक्ष व्यक्त करेगा। भावनायें जिसके प्रति है उसी के समक्ष व्यक्त होनी चाहिये।
एक दिन धीरज मधूलिका के घर पहुँचा मधूलिका ने हमेषा की तरह खिलखिला कर धीरज का स्वागत किया ओर अंदर ले गई। मधूलिका ने गप्प षुरू कर दी, पर धीरज का दिमाग आज एकदम कंेद्रित था और योजना के अनुसार ही काम कर रहा था, वह भी मधूलिका के साथ गप्प में षामिल था पर उसकी निगाहें लक्ष्य पर टिकी थीं। वह आज सब बोल देना चाहता था, परिणाम कुछ भी हो पर बोलना जरूरी था, यही था जो उसे चैन दे सकता था।
उसने मधूलिका से आज पहली बार कहा, ’’ कहीं बाहर चलें।’’ मधूलिका ने कहा, ’’ नो वे! मेरा मन नहीं है।’’ धीरज ने जोर देकर देखा लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। धीरज की नजरे अभी भी लक्ष्य पर टिकी थीं, उसने दूसरा रास्ता खोजना षुरू किया उसे एक बड़ा विचित्र सा नाटकीय विचार आया जो षायद उसने किसी फिल्म में देखा रहा होगा।
उसने मधूलिका से कहा ’’ मैंने एक कहानी लिखी है, लव स्टोरी है, पर उसका अंत मैं नहीं लिख पा रहा हूँ, क्या मेरी कुछ मदद करोगी?’’ मधूलिका ने कहा, ’’ मुझे कहानी वगैरह में इंट्रेस्ट नहीं है।’’ धीरज ने कहा, ’’ क्यूँ ? क्या तुममंे भावनाएँ नहीं है? तुम हार्टलेस हो?’’ मधूलिका ने चिढ़ते हुए कहा, ’’हाँ।’’
फिर भी किसी तरह धीरज ने मधूलिका को कहानी सुनने के लिये राजी कर लिया। धीरज ने अपनी ही कहानी एक दूसरे ’प्रोटेगनिस्ट’ को लक्ष्य करके सुना दी। उसने वो सब बता दिया जो वो उसके बारे में महसूस करता था, सोचता था या कहना चाहता था।
अंत में उसने मधूलिका से कहा, ’’जानती हो वो लड़का कौन है?’’ मधूलिका ने कहा,’’कौन है?’’ ’’मैं’’, धीरज ने कहा।
मधूलिका चैंक पड़ी, ’’आई न्यू इट! मुझे पता था ये आपकी ही स्टोरी है, मुझे षुरू से ही लग रहा था, पर वो लड़की कौन है?’’ धीरज स्तब्ध हो गया, उसका मष्तिष्क जैसे षून्य हो गया, दृष्टि क्षेत्र संकुचित होकर मधूलिका के मुख पर कंेद्रित हो गया। वह उसकी आँखों में आँखें डालकर बोला, ’’तुम!तुम हो वो लड़की।’’ मधूलिका ने वेपरवाही से कहा,’’ आप मजाक कर रहे हो।’’ धीरज ने बुहत ही स्थिर, षांत और दृढ़ आवाज में कहा, ’’नहीं मैं मजाक नहीं कर रहा, मैं सच कह रहा हूँ।’’ धीरज ने यह कहते हुए मधूलिका का हाथ पकड़ लिया, मधूलिका ने तुरंत हाथ झटक कर अपने को पीछे खींच लिया और चुपचाप इधर उधर ताकने लगी। धीरज बहुत घबराया हुआ था, उसका मुँह सूख रहा था और आवाज लड़खड़ा रहीं थी, वह अपनी साँसों पर काबू नहीं कर पा रहा था, फिर भी वह रूकना नहीं चाह रहा था। लड़खड़ाते षब्दों में ही उसने बोलना षुरू किया, ’’ मधूलिका मैं तुमसे कुछ नहीं चाहता, यह भी नहीं चाहता कि तुम भी मेरे लिये वही भावना रखो जो मैं तुम्हारे लिये रखता हूँ, बस तुमसे कहना जरूरी था।’’
मधूलिका झटके से धीरज की तरफ रूख करके बोली, ’’ कब से चल रहा है ये सब।’’ ’’ जबसे तुम्हें पहली बार ध्यान से देखा’’, धीरज ने कहा। ’’तो पहले क्यों नहीं कहा?’’
धीरज, ’’क्योंकि इस भावना के बारे में मैं खुद ष्योर नहीं था।’’ मध्ूालिका, ’’तो आप ष्योर कब हुए?’’ धीरज, ’’जब तुम्हारा चेहरा हरदम सामने रहने लगा, तुम्हारी सोच दिमाग से चाहकर भी नहीं निकाल पाया, जब‐‐‐‐‐‐‐’’ मधूलिका बीच में ही बात काट कर बोली,’’पर मैंने तो आपको टीचर से ज्यादा अपना दोस्त समझा था।’’
धीरज- हमारी बुरी आदत है, हम दोस्त से ज्यादा ही समझ लेते हैं।
मधूलिका- हाँ! बिल्कुल!
धीरज- मधूलिका आई लाइक यू।
मधूलिका- बट! आई डांेट लाइक यू।
धीरज- मंैने ये कभी भी नहीं चाहा था कि मैं तुमसे अफेयर जैसा कुछ रखूँ या फ्लर्ट जैसा कुछ करूँ क्योंकि ये मुझे आता ही नहीं है, मैं तो बस इतना चाहता था कि तुम्हारी जिंदगी में मुझे थोड़ी जगह मिले, तुम्हारी दुनिया में रहने का मौका मिले, तुम्हारे साथ जीने का सौभाग्य प्राप्त हो‐‐‐‐‐।
मधूलिका- ऐसा ’कभी नहीं’ हो सकता।
मधूलिका द्वारा कहे इस वाक्य में ’’कभी नहीं’’ पर बहुत जोर था। प्यार के होने या फिर न होने का हम कारण नहीं खोज सकते। जितना स्वाभाविक प्यार का होना होता है उतना ही स्वाभाविक प्यार का न होना भी होता है। इस बात को धीरज समझता था इसलिये उसने अभी तक मधूलिका से कोई भी सवाल नहीं पूँछा था और पूँछना भी नहीं चाहता था पर ’’कभी नही’ं’ ने उसके अस्तित्व पर हथौड़े जैसा प्रहार किया, एक बार फिर धीरज विचलित हो गया, वह तड़प गया और चिल्ला उठा,’’क्यों नहीं हो सकता? क्या कमी है मुझमें? म

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