माँ की कोख में
सबके लिए सपने देख रही थी
अपने लिए सपने देख रही थी
पर लगता है कि
अब उनकी जरुरत नहीं है |
ख़ुशी दिख रही थी
माँ की आँखों में
पिता भी होलें होलें
मुस्करा रहे थे
सपनो में मेरे अपने सभी
खुश ही नजर आ रहे थे |
धीरे धीरे सबको समझने लगी
अहसास हुआ उन बातों का
जो साफ समझ आती थी
और दुनिया के कड़वेपन का
हर पल अहसास कराती थी |
उन्ही अहसासों से मेरे
सपने टूटने लगे
तब लगा मुझे कि
अब उनकी जरुरत नहीं हैं |
उन सभी ने भी एक
छोटा सपना देखा था
एक लल्ला को घर में
अपने देखा था
हर रोज़ सरे अपने
भगवान को जपते थे
एक लल्ला की चाह में
मन्नते करते थे
एक रिश्ता जुड़ा था उनका
उन सपनो के साथ
और मेरे सानो की हुई
एक और हार
इसलिए उन हरे सपनो से
अब लगता है की
अब उनकी जरुरत नहीं है |
जिंदगी को अब में क्यों अपनाऊ
माँ की आँखों में क्यों नमी लाऊ
जिंदगी भर यह अफ़सोस
क्यों मैं उठाऊ
कि एक लल्ला की चाह में
मैं दुनिया में आई हू
इस दुनिया को मेरी
ना मेरे सपनो की
कोई जरुरत समझ आती है
इसलिए लगता है कि
अब उनकी जरुरत नहीं है |
पर पता नहीं क्यों
मुझे लगता है कि
मुझे आना होगा
और कौन हूँ मैं
यह बताना होगा
मेरे आने से दुनिया में
दुःख होगा मेरे अपनों को
पर फिर भी मुझे आना होगा
शायद कोई समझ जाए
सपनो की कीमत को
उस पहिये की कीमत को
जिसके बिना संसार अधुरा है
और मुझे ना लगे कि
अब उनकी जरुरत नहीं है |
शायद एक चिगारी जगा दू
और इस दुनिया को पिघला दू
रोक ना पाए कोई हमको
इस दुनिया में आने से
सपनो को दिखलाने से
खुशियों से मुस्काने से
ताकि फिर ना लगे मुझे कि
अब उनकी जरुरत नहीं है |
रोहित अवस्थी
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