किस बात पर लिखूं
किस बात पर लिखूं
लिखने के लिए बैठ गया
पर भूल गया यादोँ को
उलझी हुई है जो
लताओं के जैसे
खुली हुई आँखों के
उन ख्बावो के जैसे
क्या उन उलझी हुई यादो के
जज्बात पर लिखूं
खुद से पूछता हु कि
किस बात पर लिखूं
थोड़ी दूर पीछे पीछे
जाता हू यादो के
कि शायद कोई
मुस्कान खोज लू
पर उलझने आज की
मजबूर कर देती हैं
आज में वापिस आने को
मुस्कराहट को भूल जाने को
ना यादो में जाकर
ख़ुशी खोजने देती हैं
ना जिंदगी में आज की
ख़ुशी कोई देती हैं
न कोई मुस्कान है
न ख़ुशी दिखाई देती है
इसलिए सोच रहा हू
कि क्या मैं जिंदगी की
खटास पर लिखूं
खुद से पूछता हूँ कि
किस बात पर लिखूं
सोच नहीं सकता था
कि जिंदगी इतनी कडवी होगी
दिलोदिमाग बेकाबू होगे
फिर भी झूठी हंसी
होठों पर सजी होगी
भगवान से इच्छा की थी
सब कुछ पाने की
जब कुछ न था पास
पर ख़ुशी थी मुस्कान थी
अब सब कुछ को संभालना
खुशियों पर भारी पड़ रहा
फिर से नई आशायो को
मैं मन ही मन में गढ़ रहा
क्या मैं उन सभी
इच्छायो पर लिखूं
खुद से पूछता हूँ कि
किस बात पर लिखूं
मैं नहीं सभी मेरे साथ के
खुश थे छोटी जिंदगी से
पर क्या बदल गया
कि साथ होकर भी
हम साथ नहीं हैं
पर वक़्त कि परछाई में
साथ खड़े है
उन यादो को लेकर
तो क्या उन परछाइयो की
मिठास पर लिखू
खुद से पूछता हूँ कि
किस बात पर लिखूं
रोहित अवस्थी
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