नीर प्रेम प्यासे को तब तक !
प्यास न जाती उसकी जब तक !!
नीर-पान कि तीव्र लिप्सा से ,
जब प्यासा अकुलाता है !
सच ही महत्व तभी वारि का ,
उसे समझ में आता है !
वारि-चाह से मचलते ह्रदय का,
पर जब,प्यास बुझ जाता है !
फिर कहाँ, प्राणदायकके जैसा ,
महत्व उसका रह जाता है ???
तरु-प्रेम पथिक को तब तक !
पथ न कटता उसका जब तक !!
दहकते सूर्य कि प्रखर किरणे ,
जब पथिक के तन पे आती हैं !
तो जलते हुए मार्तण्ड कि भांति ,
पथिक को भी जलाती हैं !
तब व्याकुल हो छाया को विकल ,
तरु के नीचे वह जाता है !
और दिनकर के करे आतप से ,
जलते तन को बचाता है !
पर हाय रे ! तरु के छदन !
अजब यह रूप हमारा है !!
उस शीतल छाया के बदले ,
कटता गला तुम्हारा है !!
हाय ! जग कितना कृतघ्न है !
उपकार नहीं समझ पाता है ,
स्वार्थ कि अनिर्मल सरिता में ,
कृतज्ञता को बहा जाता है !!
(यह कविता मनुष्य के "स्वार्थपूर्ण स्वभाव " के "इर्द-गीर्द" घूमता है , तथा मनुष्य के
अपने स्वार्थ साधने कि प्रवृती कि ओर इंगित करता है / इस कविता का ताना-बाना मनुष्य
के अपने "पूर्व-उपकारी" का अनादर तथा तिरष्कार करने कि प्रवृती कि ओर भी इशारा करता है )
By:- ROHIT KUMAR
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