Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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समय की चोट

 

लौह कृपाण के परुष प्रहार को हंसकर सह्नेवाला ,
ठोकर खा कर भी फिर उठ कर आगे बढनेवाला ,
जो नर गिरी और यम के समछ भी नही झुकता है ,
अपने जीवन-पथ में नही जो विघ्नों से रुकता है ,
ऐसे शिलाओं से ह्रदय भी टूट जाते है,
निकलता वक़्त जब आगे वे पीछे छुट जाते है,
समय के सांचे में वे नर भी आखिर ढल ही जाते है ,
वक़्त के तेज अनल लपटों में आखिर जल ही जाते हैं ,
देखे हैं दुर्धर्ष नर जिससे कृतांत भी डरता है ,
विघ्नों के शिखर पर भी जो आह्लादित हो चढ़ता है ,
जिसके गर्जन सुन सिन्धु भी सहम कर चुप हो जाते हैं ,
गरजते हुए मेघ भी कुछ क्षण को मूक हो जाते हैं ,
पर समय के मार से ऐसे नर भी दहल ही जाते हैं ,
वक़्त के चोट से पत्थर दिल भी पिघल ही जाते हैं ,
मजबूत करों से गिर कर भी शीशा फुट जाता है ,
निकलता वक़्त जब आगे नर पीछे छुट जाता है ,
पकर लो वक़्त को कर में न हाथों से निकलने दो ,
चमकते सूर्य सम कणक को करो से मत फिसलने दो ,
जकर लो वक़्त को जैसे शैल को भू जकरती है ,
पाहन के कण-कण को जैसे भू की मिट्टी पकरती है ,
रुत होता है शीशा यदि यह हाथो से छूटेगा ,
न सकोगे रोक तुम इसको, फिर तो यह निश्चित ही फूटेगा /
जलेगा तन जिस ज्वाला में , क्यों उस अनल से खेलेंगे.......??
आमंत्रण दे विघ्नों को, फिर क्यों हम उसको झेलेंगे .........?????

 

 


( यह कविता मेरे द्वारा दो 'संदर्भ' को ध्यान में रखते हुए लिखा गया गया है) :-
(1.) "समय बहुत बलवान होता है/ " समय के आगे हर आदमी समर्पण करने के लिए मजबूर होता है/
(2.)" समय बहुत महत्वपूर्ण होता है/ " आदमी को चाहिए कि वो समय को हाथो से न निकलने दे /
एक-एक पल का सदुपयोग करे /

 

 

रोहित कुमार

 

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