पूस का महीना था.कड़ाके की ठण्ड पड़ रही थी.स्वेटर लेने के लिए मै अपने
स्थानीय बाजार गया था.दुकान पर बहुत भीड़ थी.मै अपनी बारी आने का इंतजार
कर रहा था.अचानक मेरी निगाह एक नव दम्पति पर पड़ी.जिन्हेँ देखकर ऐसा लगता
था कि इनकी शादी के अभी ज्यादा दिन नहीँ हुए थेँ.ये दम्पति भी ऊनी कपड़े
खरीदने आए थे.
दुकानदार- "भाईसाहब! भाभी जी के लिए कितने दाम तक की शाल दिखाऊँ?"
दीपक - "तुम पैसे की चिँता मत करो.ऐसी शाल दिखाओ जिसे रईस लोग पहनते होँ.
"ठीक है ,बाबूजी!" कहकर दुकानदार ने पन्द्रह सौ की एक शाल पैक करके उसकी
पत्नि को पकड़ा दिया.
ज्योती -"एक शाल ससुर जी के लिए भी लेते चलिए.उनकी शाल पुरानी हो चुकी
है.उसमेँ कई जगह छेद भी हो गए हैँ.
दीपक -" भाईसाहब ! एक शाल मेरे बाबूजी के लिए भी दिखाइए."
दुकानदार- "भाईसाहब !कितने दाम तक दिखाऊँ ?"
दीपक- " जरा सस्ते मेँ दिखाइएगा.जिसका दाम ढाई -तीन सौ से अधिक न हो."
उस व्यक्ति की बातेँ सुनकर मेरी आँखेँ नम हो गईँ. थोड़ा साहस करके मै उसके
पास गया और पूछा," भाईसाहब!आपके पिताजी रईस आदमी नहीँ हैँ क्या?"
मेरी बातेँ सुनकर वह व्यक्ति झेँप गया और उसने दुकानदार को मँहगी शाल
निकालने का आर्डर दे दिया.
लेखक -सागर यादव 'जख्मी'
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