आँखों ने उमीदों को जगाया था ,ख़ुशी मुस्कराहट बनकर खिल रही थी ,
आशाओ ने ली थी एक नई उड़ान।
पता ना था की मैं हूँ कितनी अनजान ,
सच ने जल्द ही यह समझा दिया की सबकुछ है कितना वीरान।
हवाओं ने रूख मोड़ लिया था ,ऐसा लग रहा था कागज़ की कश्ती की तरह तू डूब रहा हो ,
दिल इतना मायूस था ,अब वो गुलाबी सपना बैरंग हो गया था ,
मंन में सवालो का बवंडर सा आ रखा था।
वक़्त हाथों से रेत की तरह फिसल रहा था।
थम सा गया हो जैसे हार वो रुख ,आसुओं ने भी अब साथ छोड़ दिया था ,
ना जाने क्यों ज़िन्दगी बंज़र लग रही थी ,
तन्हाइयों ने साथ दे दिया था ,
सफर में कांटे थे अनेक ,लेकिन चलते जाना ज़रूरी था।
नहीं पता चलकर जाना कहा था ??
मंज़िल से मैं थी अनजान ,पर इस दुनिया ने सीखा दिया था
की हर हाल में बढ़ते चले जाना वाला ही है सच्चा इंसान।
लेखिका -संचिता
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