कैसे समझ लिया मुझ बेटी को बूझ तुमने ??
मैं तेरे आँगन की वो कली हु जो हार तरफ तेरे संस्कारों की खुशबु फैलाऊंगी।
बाबा जिस बेटी को तुमने ऊँगली थामकर चलना सिखाया था ,
कैसे उस बेटी को समझ लिया बीच मजधार की नाव ??
माँ तेरी यह बेटी हर हालातो से लड़ जाना जानती है ,
बाबा तेरी यह बेटी ही है जो पढ़ लिखकर तेरा साहारा बनेगी।
वो घर केलिए दाना लाना भी जानती है.
आसान नहीं होता बेटी से आगे का सफर उसकेलिए निभाना ,
यह बेटी ही ना रही तोह किसके दम पे यह दुनिया बसेगी??
प्यार की चाह में हर रिश्ते को हँसकर है वो निभाती ,
अपने हर दर्द को खुद में है वह पी जाती ,
परायों को वोह अपने प्यार से है अपना बनाती ,
हर रूप में वोह खुशियाँ से तेरी दुनिया को है सजाती।
कवित्री -संचिता
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