कोई यहाँ पाने की चाह में भटक रहा था
तोह कोई सबकुछ पा कर भी यहाँ अकेला था
कोई ख़ुशी की तलाश में अपना आज गवा रहा था
तोह कोई शोहरत की आस में अपनों से लड़ रहा था
कोई दुखी हो कर भी सुख की आस में दुसरो में ख़ुशी तलाश रहा था
तोह कोई अपने किरदारों को निभाते निभाते अपने को ही भुला रहा था
कोई सवालो के दल -दल में खुद को डूबा रहा था
इंसान आज की आपा धापी में इतना खो रहा था
जितना देखो इस दुनिया के लोगो को मेरा मंन उतना ही हैरान हो रहा था
इंसान यहाँ खुदसे ही जुझ रहा था
कवित्री
संचिता
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