मंज़ूर है मुझे अब अपने दर्द को खुद तक रखना
मंज़ूर है मुझे इंन खामोशियों से अब दोस्ती करना
मंज़ूर है तेरे दिए हर इल्ज़ामों को अब पी जाना
मंज़ूर है अब तुझे इन आंसुओं के संग भूल जाना
पर मंज़ूर ना है मुझे ,खुदको तेरी वजह से कमज़ोर कर जाना
ना मंज़ूर है मुझे खुदके आत्मा विश्वास को तेरे लिए चूर कर जाना
ना मंज़ूर है मुझे तेरे गलत सोच का साथ दे कर तुझे गलत राह दिखाना
ना मंज़ूर है तेरे शर्तो पे अभ और जी पाना
ना मंज़ूर है तेरे हिसाब से और घुटकर मर जाना
ना मंज़ूर है मुझे खुद्की आत्मा को किसी और का मोहताज कर जाना
मंज़ूर है मुझे अब अपनी ज़िन्दगी को अपने ढंग से अब जी जाना
मंज़ूर है अब अपने दबे अरमानो को पंख दे कर नई उड़ान दे जाना
कवित्री
संचिता
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY