पता नहीं किस राह पे मैं चल पड़ी हु ....
हर मोड से अंजान हु ...
मंन है की विरान रह गया है.....
दर्द इतना सह चुकी हु....
उम्मीदों का दामन छोड़ चुकी हु.....
इतना जान चुकी हु की मुझको चलते जाना है....
फिर भी नहीं पता किस राह पे मैं चल पड़ी हु।
गमो को पी चुकी हु ,पल पल मर मर के भी जी चुकी हु....
फिर क्या है बाकी की आज भी मै ढूंढ राही हु....
अभ तोह ख़ुशी भी जैसे मुझसे रूठ गयी हैं....
हर तरह से इम्तिहान ले चुकी है ज़िन्दगी....
पता नहीं कौन सी राह है मेरी जिस पे मै चल रही हु।
लेखिका -संचिता
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