जब हर दर्द को चुप चाप अकेली वो सहती है
तब वो सहनशील नारी कहलाती है।
जब वो प्यार अपना देती है माँ के रूप में
तब वो नारी ममता का सागर कहलाती है।
जब वो त्याग करती जाती है अपने अरमानो ,सपनो को दुसरो की ख़ुशी के लिए
तब वो दया की मूरत कहलाती है।
पर जब वही नारी अपने प्रति हुए अन्याय और अपने अधिकारों के लिए लड़ती है
तब वो मगरूर नारी का इलज़ाम पाती है ??
जब अपने हक़ के लिए इस समाज से उचित न्याय की अर्ज़ी करती है
तब यह नारी स्वार्थी और अहंकारी का ख़िताब भी पा जाती है ??
समाज में हुए नारी के प्रति अत्याचार और असमान को
आज भी यह नारी घुट घुट कर क्यों जीती है ??
भूल गया यह अँधा समाज की यह नारी भी इंसान है
इस नारी का आदमी से बरा बरी का हक़ आज भी है।
फिर भी यह नारी दहेज़ की आग में आज भी जलती है
फिर भी वो आज बेटी के नाम पे धिकारी जाती है
फिर भी वो पैदा होने से पहले ही नरपिचाश इंसानो द्वारा गर्ब में ही मारी जाती है
फिर भी आज नारी अपने अस्तित्व को खोज में हर जुर्म को सहने में मजबूर खुदको वो पाती है
फिर भी हर रूप में नारी यहाँ समाज में असुरक्षित खुद को हर पल पाती है ??
कैसे फिर यह समाज कहता है की प्रगति की ओर यह देश अग्रसर है ?
कैसा यह समाज है जहा आदमी और नारी के भेद भाव का शिकार आज भी यह नारी हो जाती है ?
नारी कमज़ोर ना है ?नारी लाचार ना है ?
वह अगर माँ,बीवी ,बेटी है तोह वह शक्ति है ,वो देवी का रूप है
जो समाज जो नारी को उचित सम्मान और उचित न्याय ना दे पाता है
वो समाज कभी उनत्ति और प्रगति की राह पे आगे नहीं बढ़ पाता है ?
वो समाज फिर हर क्षैत्र में पिछड़ा हुआ ही रह जाता है।
कवित्री
संचिता
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