परिंदा पंख फैला कर आज़ादी चाह रहा था
हैरान था वो यह देखकर की इंसान आस्मां में बारूद की बू फैला रहा था
जिनके इंतज़ार में हमने उम्र बिता दी
उसीने एक दिन मुझे बेगाना कहकर मेरी हस्ती मिटा दी
दुःख के बादल जब मन को घेर रहे थे
कलम की स्याही तब अल्फाज़ो में नगमो की तलाश कर रहे थे
कसूर न तेरा था ,ना मेरा
कसूर उस सफर का था जो ना तेरा था ,ना मेरा
ज़िन्दगी के सवालो में उलझे हुए थे इस कदर
की हिसाबों की चाह में हम भटकते रहे दर बदर
दिल - ऐ - नादान की गुज़ारिशो में हम इस कदर खोए थे
याद नहीं कब हम आखरी बार सुकून से सोए थे
कोई खून करके कातिल कहलाया
पर जो दिल को शीशे की तरह तोड़ गया
वो क्यों नहीं खुद्की गुस्ताख़ी से था शरमाया ?
कौन कहता है हम लिखते है ज़माने के लिएहम तोह लिख्रते है ,इस ज़माने को भुलाने के लिए
BY SANCHITA
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