जब भण्डार था
तथ्यों का
असीमित,
तब-
सवाल था वरीयताओं का
जिन्दगी की फाईले
फटकार हुई तार-तार
गरीब भावनाओं के तर्क
खोते गए वजूद
नि:शब्द में,
और शब्द होते गए हावी
सिधान्तों की शक्ल में
निष्ठाएं दबी पड़ी रही
पुराने पड़े पन्नो के ढेर में
और आज सवाल वरीयताओं का नहीं
कहली पड़े है तथ्यों के भंडार
चरमरा गयी हैं इमारतें
संवेदनाओं की
आकाँक्षाओं ने क्र लिया है
अवैध कब्ज़ा
हृदय के उद्गारों पर
हो गया हर द्वार अवरुद्ध
मस्तिष्क का, विचारों के लिए
तथ्य जो रह गए हैं कुछ शेष
पद गए है शिथिल
भीतर ही भीतर।
संदीप तोमर
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