मेरा अंतिम प्रेम
लेता है हर साँस सुकून से
ख़त्म नहीं होता स्पंदन
तुम्हारे जीवित शरीर की मृत आत्मा
कर रही है विचरण
आदमी दर आदमी
शायद पथिक को नहीं मालूम
यात्रा का अंतिम छोर
जैसे नदी का जल बहता है
किनारों से टकराता
फैलता ही जा रहा है
हृदय के आँगन में
उजाले का अँधेरा
जैसे गडी जाती हैं धरती में
शंकालु नजरें
जिन्हें उठाने की
की गयी हज़ार कोशिशे
हालाकि स्मृति से लुप्त
हो ही जाना है
प्रेम का हर एक पन्ना
किसी कुंठाओं में
जीती यौवना के
समाप्त के स्तनों की तरह।
संदीप तोमर
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