भारत और भारतीय खिलाड़ी ..............इस विषय पर सोचते ही दिलो दिमाग मे कुछ छटपटाने लगता है । महसूस होता है की कुछ दम तोड़ रहा है । विश्व मे भारतीय खेलों के नाम पर केवल क्रिकेट , टेनिस और बैडमिंटन ही रह गया है । क्रिकेट यानि शानो –शौकत , पैसा , नाम ,फेम और सुरक्षित भविष्य । क्रिकेट के खिलाड़ी ना सिर्फ अपने खेल से मोटा पैसा कमा रहे है , फिल्मी जगत भी उन्हें हाथो –हाथ कैश कर रहा है । बढ़िया से बढ़िया सरकारी और गैर सरकारी नौकरियाँ भी उनके कदमों मे बिछी जातीं है । दूसरे नंबर पर टेनिस और बेडमिंटन भी अमीरी का खेल कहा जा सकता है । बड़ी –बड़ी कंपनियाँ इन्हे स्पोनसर करने के लिए होड़ लगाए रहती है । सरकार की ओर से भी इन खेलों पर प्रोत्साहन हेतु तगड़ा फंड खर्च किया जाता है । इसके ठीक विपरीत यदि हम भारत के राष्ट्रीय खेल हाकी पर आ जाएँ तो शर्म से नजरें झुक जाती है । एक सौ पच्चीस करोड़ के भारत में हाकी अंतिम साँसे ले रहा है । भारतीय हाकी का अतीत स्वर्णिम रहा है । भारत ने हाकी में आठ बार ओलंपिक का गोल्ड और रजत पदक जीता है , परंतु जब से हाकी खिलाड़ियों के हाथ से निकलकर राजनीतिज्ञों ,दलालों और नौकरशाहों की कठपुतली बनी अपना मूल स्वरूप ही खो बैठी । हालत इतनी बदतर हो चुकी है की सालों की मेहनत और इज्जत मिट्टी में मिल गयी । 2012 बीजिंग ओलंपिक के लिए भारतीय हाकी ब्रिटेन से क्वालिफाइंग मैच भी नहीं जीत पायी और बाहर हो गयी । पूरा देश शोक मनाता रहा और भारतीय हाकी फेडरेशन एक दूसरे पर खिचड़ उछालता रहा । सभी की दिलचस्पी हाकी के औंधें मुह गिर जाने से ज्यादा ख़ुद को सफेद पोश दिखाने में थी । विश्व के अन्य देशों में ये शोर फैल चुका है की भारतीय हाकी में अब दम नहीं रहा , वहीं दूसरी ओर भारतीय दौड़ में भी दो चार खिलाड़ियों के अलावा और कोई ऑप्शन नहीं है । दौड़ की हालत ख़स्ता से भी ख़स्ता हो चुकी है । कई सालों से दौड़ में भारत के पास अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कोई ख्याति नहीं रह गयी है । अन्य देशों ने भारत को काफी पहले ही पीछे छोड़ दिया है ।
धावकों की बात की जाए तो बुधिया का जिक्र आना अवश्यंभावी है ।
उड़ीसा के रहने वाले बुधिया ने साढ़े चार साल की उम्र में मैरेथन दौड़ के दौरान 65 किलोमीटर की दूरी को सात घंटे – दो मिनट में तय करके नया रिकार्ड बनाया था । लिमका बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड्स में अपना नाम दर्ज करवाने वाला ये होनहार भारतीय नन्हा खिलाड़ी अब गुमनामी में है । बुधिया के कोच बिरंचि दास पर उस समय बाल शोषण और बुधिया के जरिये अपना फायदा निकलवाने का आरोप लगाया गया था ।हालांकि वे इन सब आरोपो को निराधार बताते रहे थे किन्तु उन पर जांच कमेटी बिठाई गयी थी । उसके कुछ समय पश्चात बिरंचि दास की संदिग्ध हालतों में हत्या हो गई थी । ये सब भारतीय खेलों में विद्यमान राजनीति की ओर संकेत करता है । आजकल भारतीय धावकों में दुर्दशा का शिकार एक ओर नाम बहुत चर्चा में है –'मक्खन सिंह ' । पंजाब के मक्खन सिंह अपने जमाने के मशहूर धावक मिल्खा सिंह के साथी रहे थे । आज उनके मरणोपरांत उनका परिवार रोटियों को भी मोहताज है । उनकी पत्नी ने भारतीय जनता से मक्खन सिंह के अर्जुन पुरस्कार को खरीदने की गुहार लगाई है जिससे उन्हें कुछ आर्थिक सहारा मिल सके । भारतीय खिलाड़ियों की दुर्दशा का हाल फुटबाल का हाल जाने बिना अधूरा सा लगता है ।
भारत की इतनी बड़ी आबादी अब फुटबाल के क्षेत्र में केवल दर्शक बन कर रह गयी है । भारतीय खिलाड़ियों की तैयारी और उनके साथ होने वाले बर्ताव की एक झलक वींटर ओलंपिक में देखने को मिली । खिलाड़ियों के पास प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए पोशाक नहीं थी । ये बात कनाडा की मीडिया में सुर्खियों का कारण बनी रही । पर ऐसा मामला पहली बार सामने नहीं आया है इससे पहले भी 1950 के फुटबाल विश्वकप में भारतीय खिलाड़ियों के पास जूते नहीं थे इसलिए उन्हे खेल से बाहर होकर एक सुनहरा मौका गंवाना पड़ा था । भारतीय अन्य खेल जैसे तैराकी , बोक्सिंग , जिम्नास्टिक, कुश्ती आदि की हालत भी शोचनीय और विचारणीय है । जिन खिलाड़ियों के पास निजी संपत्ति का सहारा है वे तो फिर भी कुछ आगे बढ़ पा रहे है लेकिन मध्यम निम्न वर्ग के खिलाड़ियों की योग्यता मज़बूरी के तले दबकर खो रही है । खिलाड़ी आर्थिक तंगी के साथ –साथ राजनीतिक दांव पेच के भी शिकार हो रहे है । खेल संगठनो में पनपते भाई – भतीजावाद , लालच , भ्रष्टाचार और स्वार्थी प्रवर्ति ने भारतीय खेलों और खिलाड़ियों को विश्व में सबसे निचले पायदान पर ला खड़ा किया है । भारत के खिलाड़ियों के पिछड़ने का एक महत्वपूर्ण कारण है – आर्थिक असुविधाएँ । भारतीय खिलाड़ी ज़्यादातर गांवो या कस्बों से आते है और सरकार की ओर से इन्हें प्रशिक्षण हेतु , स्वास्थ्य हेतु , भरण पोषण हेतु सुविधाएं ना के बराबर दी जाती है । आखिर एक कुपोषित खिलाड़ी कैसे अपने देश के लिए पदक पैदा कर सकता है ? सरकार की ओर से खिलाड़ियों को जो सरकारी नौकरी का कोटा दिया जाता है उस पर चयंकर्ताओ के भाई भतीजे राज करते है । खिलाड़ियों का चयन भी क्षेत्र , जाति , धर्म , रिश्तेदारी के आधार पर होने लगा है । पिछले नामी खिलाड़ियों और चयनकर्ताओं के नाते रिश्तेदार राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी अवश्य बनने चाहिए , चाहे उनमें योग्यता हो या ना हो । ऐसे खिलाड़ियों ने खेल के नाम पर नौकरियाँ पाने का धंधा बना लिया है । एक बार नौकरी हाथ आते ही वे खेल की ओर मुड कर भी नहीं देखते । इन सब धांधलियों के चलते सच्चे और होनहार खिलाड़ी केवल धक्के खाते रह जाते है । खेलों में उपजी इस गंदी राजनीति की मार में रही सही कसर सरकार पूरा कर देती है , जो खिलाड़ियों को उनके करियर के दौरान भी उचित सुविधाएं नहीं देती है और रिटायरमेंट के बाद तो पूछती भी नहीं । जब खिलाड़ी ख़ुद को और अपने परिवार को सदैव मुश्किलों से जूझता पाते है तो उनके अंदर का खेल स्वत: ही मर जाता है । भारतीय खिलाड़ियों की दुर्दशा और खेलों में व्याप्त राजनीति को देखते हुए राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर की यह पंक्तियाँ याद आती है -----
समर शेष है नहीं हिंस्र का दोषी केवल बाघ
जो तटस्थ है समय लिखेगा उनका भी अपराध ॥
संजना अभिषेक तिवारी
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