चारों तरफ छोटे –छोटे घरों से बना ये शहर अपने आप में ही गुम सा था । शाम के चार बजे थे और यहाँ ऐसा सन्नाटा छाया हुआ था जैसे रात का दूसरा पहर चल रहा हो । एक ओर पंछी घोंसलों में लौट रहे थे तो दूसरी ओर मैं ...........आह ! दूर –दूर तक फैला ये सन्नाटा मेरे अंदर के डर को और बढ़ाता जा रहा था , जाने क्यूँ मम्मा पापा इस वीरान सी जगह पर आकर बस गए है ? अपने आप से बातें करता पुनीत तेज कदमों से चला जा रहा था ।
हाथ में ऐड्रेस की चिट लिए वो हर एक दरवाजे पर ऐड्रेस चेक करता और फिर आगे बढ़ जाता । आखिर एक घंटे के अथक प्रयास के बाद उसे अपना नया घर मिल ही गया । दरवाजा खटखटाने को ज्यों ही हाथ बढाया , उसकी हिम्मत जवाब दे गयी और वो वापस लौटने के लिए मुड़ गया ।
"क्या वो मुझसे अभी भी उतने ही नाराज होंगे ?.............नहीं ! माँ की बातों से तो ऐसा नहीं लग रहा था । " ये विचार मन में आते ही पुनीत दुबारा दरवाजे की तरफ लौट आया और ज़ोर से दरवाजे को खटखटाया । ज़ोर की खटखटाहट से दरवाजा स्वयम ही खुल गया । पुनीत ने फिर माथे से पसीना पोछा और धीरे से घर में आ गया । घर में कदम रखते ही अतीत की सारी स्मृतियाँ उसके इर्द –गिर्द इकट्ठी हो गयी , उसकी साँसे थमने सी लगी , गला सूख गया । माँ ने हर एक चीज को वैसे ही समेटा और सजाया हुआ था जैसे उसे पसंद था ,फिर क्यूँ उसके पाँव जमीन में धसते जा रहे थे । क्यूँ वह उनसे नजर मिलाने को आतुर भी था और भयभीत भी । इस घर में कुछ नया था तो बस " छवि ", जो हर दीवार ,हर कोने , हर वस्तु में मौजूद थी । तभी एक बहुत सर्द मगर प्यार में डूबी हुई आवाज़ कानो में पड़ी –
"अंश " ..........
आह ! आज तीन साल बाद माँ ने मुझे फिर उसी नाम से पुकारा , जिससे बचपन में पुकारा करती थी । मैं पलटा तो सामने माँ को पाकर बहुत खुश हुआ , और उतना ही बेचैन भी । तीन साल में माँ की मूरत बहुत बदल गयी थी , कितनी जर-जर और पीड़ित नजर आ रही थी वो । मैंने बढ़कर माँ के चरण स्पर्श किए और जैसे ही माँ के गले लगा , मुझे वो दिखाई दी ...............
"कितनी सुंदर , कितनी कोमल और कितनी प्यारी ....लाल रंग की फ्राक में लाल रिबन लगाए , घुँघराले बालों की दो छोटी सी चोटियाँ , हाथों में मैच करती चूड़ियाँ और पैरों में मैच करते जूते "
मैं अभी उसे देखकर खुद को संभाल भी नहीं पाया था की माँ ने उसका नन्हा और मुलायम सा हाथ मेरे हाथ में थमा कर कहा –
" मेरे अंश , ये तुम्हारी छवि "
वो सकुचाती हुई मुझसे आकर लिपट गयी और धीरे से बोली – " पापा "...
" पापा " यही वो शब्द है जिसे मैंने दो महीने पहले फोन पर सुना और सुनने के बाद से ही मेरा मन बेचैन हो उठा , दो महीने से मेरी आत्मा मुझे धिक्कार रही थी । मेरा अहम टूट कर चूर-चूर हो गया था और दो महीने खुद से लड़ने के बाद आखिर आज मैं यहाँ आ ही पहुंचा । अपने किए के लिए सब से क्षमा मांगने और एक बार फिर मुझे अपना लेने की प्रार्थना करने ।
" पापा , आप हमारे लिए क्या लाए ?"
इस बार मैं खुद को रोक ना सका और बढ़कर उसे गोद में उठा छाती से भीच लिया ।
"माँ ,सचमुच ये तो मेरी ही छवि है , लगता है मेरा बचपन फिर से नया रूप लेकर आया है । "
माँ मुसकुराई और चाय बनाने चली गयी । मैं भी हिम्मत जुटा कर पिताजी से मिलने ऊपर चला गया ।
शुरू में पिताजी कुछ उखड़े से लगे पर थोड़ी देर बाद उन्होने भी माँ की भांति मुझे दिल से लगा लिया ।
लाख छुपाने पर भी उनकी भीगती आँखों ने मुझे इन तीन सालों में उन पर बीते दुख का परिचय दे दिया । माँ चाय बना लायी थी और छवि मेरे साथ ऐसे खेल रही थी जैसे कभी मुझसे बिछड़ी ही नहीं थी ।
मैंने हिम्मत करके माँ से पूछा –
" माँ आकांक्षा कहाँ है ? "
" वो आफिस गयी है बेटा " माँ ने एक धैर्यपूर्ण उत्तर दिया ।
" क्या वो जानती है की मैं आज आने वाला हूँ ?"
" नहीं , मैं उसको बताने की हिम्मत नहीं जुटा पायी । कैसे कहती की तीन साल पहले
मेरा जो बेटा तुम्हें बेहोशी की हालत में छोड़ कर भाग गया था ,आज लौट रहा है ।
" माँ ....वो ...!"
" आखिर तुम ऐसा कैसे कर सकते हो ? वो भी सिर्फ इसलिए क्यूंकी आकांक्षा ने
लड़की को जन्म दिया ? आज के आधुनिक युग में भी ऐसी सोच और व्यवहार – सिर्फ कन्या जन्म के कारण ?"
"माँ , वो बात नहीं थी । ये सच है की मुझे सिर्फ बेटा ही चाहिए था लेकिन तीसरे महीने की प्रेग्नेंसी के दौरान हुए अल्ट्रासाउंड के बाद आकांक्षा ने मुझे कहा था की बेटा है और मैं अपने अहं में बस उसे इसी बात की सजा देना चाहता था " मैं शर्मिंदा हो गया ।
" सजा , तू उसे सजा देना चाहता था । तुमने जरा भी ये नहीं सोचा की- कैसे कोई माँ अपने बच्चे को सिर्फ इसलिए मार सकती है की वो लड़का नहीं है । "
इस बार माँ का स्वर बहुत ही सख्त और खिन्न महसूस हुआ , वह फिर बोली –
" मैंने तो एक बेटे को जन्म दिया था फिर मुझे किस बात की सजा मिली और आकांक्षा एक लड़की होकर पिछले तीन साल से हमारा बेटा बनी हुई है । उसने तुम्हारी हर एक जिम्मेदारी को ख़ुशी-ख़ुशी निभाया है फिर किस लिए बेटे का मोह ? इसलिए की एक दिन जब बेटे का दिल चाहे हमें ठोकर मार कर चल दे ?तुम्हारे इस तरह गायब हो जाने से हमें अपना घर छोड़कर यहाँ आना पड़ा , ताकि हम परिवार और समाज के सवालों से बच सके । तीन साल से हम यहाँ बेगानों की तरह जी रहे है – किसके कारण ?"
मैं अंदर तक हिल गया , माँ का ऐसा रूप और कठोर व्यवहार मैंने आज तक नहीं देखा था ।
" माँ मुझे माफ कर दो , पिताजी प्लीज़ मुझे क्षमा कर दीजिये " मैंने शर्मिंदा होते हुए कहा ।
इससे पहले की वह कुछ जवाब देते , नीचे से कुछ आहट हुई । मेरा दिल जोरों से धड़कने लगा , महसूस हुआ जैसे मैं बर्फ की शिला में तबदील होता जा रहा हूँ ।
वो मेरे सामने आ खड़ी हुई थी , वैसी ही सौम्य और शांत जैसी वो पहले हुआ करती थी । वो मुझे अपलक देख रही थी और मेरी नजरें मानो जमीन में गड़ी जाती थी ।
" कैसे है आप " ? उसका शांत किंतु दुख से भरा स्वर मेरे कानों से टकराने लगा ।
" मैं ....मैं ठीक हूँ । तुम कैसी हो आकांक्षा "?
" बिल्कुल वैसी ही जैसी आप मुझे छोड़ गए थे "वो धैर्य से बोली ।
बहुत मुश्किल और व्याकुलता से मैं कह पाया –
" आकांक्षा प्लीज़ तुम और छवि मुझे माफ कर दो , अपने किए पर मैं बहुत शर्मिंदा हूँ । छवि ने मुझे बदल दिया है ,मैं तुम सब के साथ रहना चाहता हूँ । प्लीज़ मुझे एक बार फिर से अपना लो "।
घर में एक शांति छा गयी । हर कोई केवल आकांक्षा को और मैं जमीन को देख रहा था ,उसके उत्तर की प्रतीक्षा में ।
एक भीगा हुआ स्वर धीरे से गुंजा –
"आइये ".......
वो सामने बाहें फैलाये मेरे स्वागत के लिए खड़ी थी । आज आकांक्षा के गले लगकर मुझे एहसास हुआ की मैंने क्या पाया है और क्या खो दिया था ।
आज मुझे मेरा संसार वापिस मिल गया । अब हम फिर अपने घर लौट सकेंगे , अपनों के बीच और अपनों की साथ , मेरी प्यारी छवि को लिए ।
संजना अभिषेक तिवारी
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