"गौतम , आप यहाँ बालकनी में क्यों बैठे हैं । आइये अंदर आ जाइए , आपको सर्दी लग जाएगी । आइये ना मैं गर्म –गर्म चाय ले आती हूँ " । शोभा गौतम को प्यार से समझाते हुए बोली
"हाँ शोभा तुम चलो मैं आ रहा हूँ । "गौतम अपने मे ही गुम से बोले
आज गौतम को उनके लेखन के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था । उनके बहुत ही फेंमस उपन्यास "भटकती ज़िंदगियाँ " के लिए , लेकिन शोभा उन्हे आज सुबह से ही बहुत उखड़ा हुआ महसूस कर रही थी । एक टीस , एक खामोश दर्द उनके चेहरे पर कई रंग बदल रहा था । चाय लेकर शोभा गौतम के पास कमरे में आ बैठी ।
"कुछ कहेंगे नहीं ? क्या कुछ परेशानी है ?" शोभा अब चिंतित हो उठी थी
"नहीं !!!!"
"दिल की बात शेयर कर लेने से मन हल्का हो जाता है गौतम । प्लीज बताइये आप इतने परेशान क्यों है ?" शोभा बेहद चिंतित होकर बोली
" तुम समझ नहीं पाओगी और शायद मैं तुम्हारी नजरों से हमेशा -हमेशा के लिए गिर जाऊँ " गौतम रुआसें होकर बोले
" गौतम !!!!!!!! ये क्या आपकी आँखों से आँसू ??? मुझे इतना पराया ना समझिए । बताकर तो देखिये , मैं आपकी बीवी ही नहीं आपकी दोस्त भी हूँ । निकल जाने दीजिये इस गुब्बार को । " शोभा गौतम का हाथ –हाथ में लेकर बोली
"शोभा , ...... ये उपन्यास "भटकती जिंदगियाँ " कोई कहानी नहीं बल्कि मेरे जीवन का सच है । उपन्यास का धीरज मैं ही हूँ । " गौतम नीचे नजर झुकाए बोले
" ये आप क्या कह रहे है गौतम ? आप होश में भी है ?" शोभा हैरान सी बोली
"हाँ , होश में हूँ । ये वो सच है जो आज तक मैं खुद से भी कहने से घबराता हूँ । जिस भावनात्मक रचना पर मुझे इतना नाम , पुरस्कार और पैसा मिल रहा है वो मेरा सच है । मेरी कायरता , मेरा स्वार्थी पहलू है जो आज तक सब से ढका रहा । " गौतम कहीं अतीत में खो से गए और शोभा तो जैसे मूर्ति ही बन गयी थी । आंखे गड़ाए अपलक गौतम को देख रही थी ।
" बात उस समय की है जब मैं कालेज में था । पिताजी तो बचपन में ही चल बसे थे तुम जानती ही हो । माँ और कविता गाँव में रहते थे और मैं अपनी पढ़ाई के लिए शहर आ गया था । दिवाली पर माँ और कविता मुझसे मिलने शहर आए और यहाँ की तेज ट्रैफिक का शिकार हो गए । माँ घटनास्थल पर ही चल बसी और कविता बच तो गयी लेकिन हमेशा के लिए अंधी और एक पैर से लाचार हो गयी । मैं कुछ समझ ही नहीं पा रहा था । शहर की चका- चौंध ने मुझे अपनी गिरफ्त में ले लिया था इसलिए कविता के साथ वापस गाँव ना जाकर मैंने गाँव का घर और जमीन बेच दिया । शहर में एक पिछड़े से इलाके में खोली लेकर रहने लगा । कुछ दिन तक तो ठीक था लेकिन फिर मैं उकताने लगा । कविता घर के किसी भी काम को कर पाने में असमर्थ सी थी । रोज घर का पूरा काम करके कालेज जाना, फिर बच्चों को पढ़ाना और घर आकर फिर खाने पीने के चक्कर में लग जाना । मेरा पढ़ाई का समय बर्बाद होने लगा पर इसके सिवाय कोई और रास्ता भी नहीं था । गाँव में भी कोई कविता की जिम्मेवारी लेने को तैयार नहीं था ।
कालेज मे मुझे एक लड़की रौशनी बहुत पसंद थी । मैं पढ़ाई में होशियार था इसलिए वो जल्द ही मेरी दोस्त बन गयी । ये पसंद कब प्यार में बदल गयी मुझे पता ही नहीं चला । मैं अक्सर कालेज के बाद उसके साथ समय बीताता था पर कविता के आ जाने के बाद मेरा उससे मिलना बहुत मुश्किल होने लगा । वो जब भी मुझसे मिलना चाहती मैं नहीं मिल पाता था । घर जाकर खाना बनाना है और मेरी एक अंधी – लंगड़ी बहन है ये बताना मुझे नाग्वार था । रौशनी एक अमीर घर से थी इसलिए उसके आगे मैं खुद को छोटा नहीं बता सकता था ।
धीरे –धीरे रोशनी ये समझने लगी की मैं उसको अनदेखा कर रहा हूँ और इसलिए उसने भी मुझसे दूरी बनाना शुरू कर दिया । रौशनी का मुझसे यूं दूर होते जाना और दूसरे लड़कों का उसके नजदीक होना मेरे भीतर किसी खीज को जन्म दे रहा था और इस सब के लिए मैं कविता को दोषी मानने लगा । एक बार मैं शाम को काम से लौटा तो ----
" भईया , प्लीज मुझे अकेला छोड़ कर मत जाया कीजिये । "कविता काफी घबराई हुई थी
मेरे पूछने पर उसने बताया की कोई लड़का उसे पीछे से आकर परेशान करता है । पहले बस मुंह से उलटी सीधी बातें कहता था लेकिन अब तो हाथों से भी बदतमीजी करने लगा है । मेरा खून खौल गया पर कविता ये बताने में असमर्थ थी की वो कौन है ? अब मेरी परेशानी और बढ़ गयी । कहीं से भी छूटो और सीधे घर पहुँचों । कविता घबरा – घबरा कर दिन में कई बार मुझे फोन करती रहती और हर बार यही बात " भईया कहाँ हो ? जल्दी आ जाओ । मुझे डर लग रहा है ।
सब कुछ जैसे हाथ से छूटने लगा । पढ़ाई , भविष्य और मेरी रौशनी ---------
मैं बावला सा होने लगा । कविता के लिए मेरी खीज गुस्से में बदलती जा रही थी और एक दिन मैं उसे नारी संस्था में छोड़ आया । दो दिन भी नहीं बीते थे की वहाँ से भी फोन आ गया । कविता कुछ खा – पी नहीं रही थी और सामान तोड़ने के साथ ही हर किसी के साथ आक्रामक हो रही थी । उसने बस एक ही जिद्द पकड़ रखी थी की " भईया को बुलाओ "
मैं किसी तरह संस्था की अध्यक्ष को मना कर कविता को वहीं रखने के लिए राजी करके आया । उसने मुझे सात दिन का समय दिया और कहा यदि इन सात दिनों में भी कविता यहाँ नहीं रह पाइएगी तो उसे ले जाइए । मैं बौखला गया और उसके बाद कभी वहाँ लौट कर नहीं गया । वो लोग कविता को ले जाने के लिए ना बोले इसलिए वहाँ का फोन भी लेना बंद कर दिया और कुछ समय बाद अपना नंबर भी बदल दिया । अब मैं आजाद था । मुझ पर रौशनी को पाने की धुन सवार थी । मैंने कड़ी मेहनत की और पाँच सालों के भीतर ही खुद को एक अच्छे मुकाम पर स्थापित कर लिया । पर अब सबक मिलने की बारी मेरी थी । रौशनी बस मुझसे टाइम पास कर रही थी उसे उच्च वर्ग से मध्यम वर्ग में आना मंजूर नहीं था । मैं जीती हुई बाजी हार गया । छह साल बाद मैं फिर उसी संस्थान जा पहुंचा और वहाँ जाकर पता चला की कविता मुझसे अलग होकर सात महीने बाद ही गुजर गयी थी । उसे गहरा सदमा लगा था । वो जीवन से विमुख हो गयी थी । " गौतम थोड़ा रुके और लंबी सांस लेकर फिर बोले
उसके बाद तुम मेरे जीवन में आई लेकिन कविता के साथ किए अपने व्यवहार के लिए मैं हमेशा घुटता रहा । ये घुटन कब कागज पर आ गयी और मेरे लिए उपलब्धि बन गयी , मैं समझ ही नहीं पाया ।
"भटकती जिंदगियाँ " को मिलने वाला सम्मान मुझे ये एहसास दिलाता है की मैं कितना स्वार्थी हूँ जो अपनी बहन की मौत से भी पैसा कमा रहा हूँ । पुरस्कार जीत रहा हूँ । धिक्कार है मुझ पर , धिक्कार है मुझ पर ............" गौतम फूट –फूट कर रोने लगे ।
शोभा स्तब्ध थी पर ये सोच कर तसल्ली महसूस कर रही थी की अब शायद ये घुटन गौतम के साथ उनके अंत तक नहीं जाएगी । उसका नारी मन उसे गौतम से घृणा करने को कह रहा था पर उसका पत्नी धर्म उसे टूटे हुए पति को संभालने को प्रेरित कर रहा था । आखिर पत्नी धर्म की जीत हुई और शोभा ने गौतम को अपने अंक में भर लिया ॥
संजना तिवारी
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