संजय कुमार अविनाश
जन्म से आयरिश निवेदिता भारत को अपना घर बना ली , भारत की अध्यायमिकता ,
धर्म और संस्कृति मेँ रम चुकी थी तथा अपने जीवन के अंतिम क्षण तक इस देश
की सेवा मेँ तल्लीन रही ।
एक मान्य समालोचक ने वर्षोँ पहले लिखा था - " यदि हमारे देशवासियोँ को
कहीँ भावात्मक समानता मिलती है , तो वह आयरलैँड के अवसादपूर्ण साहित्य
मेँ , क्योँकि वे भी हमारी ही तरह थके-हारे लोग थे , जो संघर्ष करते रहने
के बावजूद असफल होते रहे थे ।"
ऐसी ही परिस्थितियां थी , जिनमेँ आयरलैँड के स्वतंत्रता संघर्ष ने पिछली
दो पीढ़ियोँ के भारतीयोँ को आजादी की लड़ाई लड़ने के लिए प्रेरित किया ।
इन विकट परिस्थितियां को आत्मसात करने मेँ कई देश के साथ-साथ दूसरे मुल्क
की हस्तियां बढ़ चढ़ कर भाग लिया , जिनमे मार्गरेट नोबल भी एक जाना पहचाना
नाम है - इस धरा की सौँधी महक , संस्कृति व परंपरा ने उन्हेँ आकर्षित
करने को मजबूर किया । ऐसा भी कहा जा सकता है कि इस देव भूमि पर
भारतवासियोँ पर उपकार करने हेतु कई संतो का आना होता रहा । मार्गरेट नोबल
का अतीत ही संघर्षमय था । उनके रोम-रोम मेँ गुलामी की कहर घूमता रहता था
। उनके दादा-दादी और नाना ने भी ब्रिटिश शासन से अपने देश को स्वतंत्र
कराने के लिए संघर्षरत रहे ।
मार्गरेट नोबल आयरलैँड निवासी के परिवार ने चौदहबीँ शताब्दी मेँ ही
स्कॉटलैँड से आयरलैँड चले आये थे ।
देवी तुल्य महिला मार्गरेट नोबल का जन्म 28अक्टूबर 1867ई. को डंगानन ,
काऊंटी टायरोन मेँ हुआ था । जन्म के साथ ही उनकी मां ने उसे ईश्वर सेवा
के प्रति समर्पित कर दिया था । जीवन के कई उतार-चढ़ाव के बीच स्वामी
विवेकानन्द जैसे विवेकशील महापुरुष के सान्निध्य मेँ अपनी उपस्थिति
बरकरार रखी ।
प्रथम मुलाकात 1895ई. ने एक नये मुकाम हासिल करने का आस्था बना ; तब से
लेकर जीवन पर्यन्त भारतीयोँ के स्वतंत्रता पाने के लिए लम्बी लकीर खीँचती
चली गई ।
स्वामी जी के शिक्षा और दीक्षा से ओजपूर्णता की लक्ष्य को बरकरार रखी ।
आज भी उन आत्मा की आबाजेँ गुंजती रहती है । उन्होँने अपने भाषण मेँ कहा-
"लड़को की शिक्षा का मूलाधार उनमेँ राष्ट्रीय भावना पैदा करना और लड़कियोँ
की शिक्षा का मूलाधार उनमेँ नागरिकता की भावना पैदा करना होगा । "
भारतीय भाषा एवं धर्म संस्कृति मेँ घोर निष्ठा के कारण ही मार्गरेट से
निवेदिता बन गई , और सेवा भावना की अटूट प्रवृति ने सिस्टर निवेदिता से
पहचान बनाई ।
भारत मेँ कई विद्यालय खाश कर महिलाओँ की गिरती दशा एवं स्वात्यय उत्थान
के ख्याल से नीँव रखी । नारी शिक्षा मेँ पाखंड की राह को अवरुद्ध करते
हुए अनेक सराहनीय कार्य करने मेँ अव्वलता हासिल की । जाति-भेद , धर्म-भेद
को भी समाप्त करने मेँ अहम भूमिका निभाने की अनथक प्रयास की ।
उनका एक महत्वपूर्ण व्याख्यान 'एशिया मेँ इस्लाम' नामक बिषय था । अपने
भाषण मेँ उन्होनेँ कहा - "आज भारत के हर मुसलमान का कर्त्तव्य क्या है ?
उसका कर्त्तव्य अपना रिश्ता अरब से जोड़ना नहीँ है । उसे इसकी कोई जरुरत
भी नहीँ है ; क्योँकि अरब से उसका रिश्ता तो प्राण और खून का है , जो कि
उसकी अपनी आस्था और पूर्वजोँ के अथक परिश्रम के कारण ही कायम हुआ था ।
प्रत्येक भारतीय मुसलमान का कर्त्तव्य है कि वह अपने आप को भारत और उसकी
राष्ट्रीयता मेँ समाहित कर ले । खून के रिश्ते के नाते भारत उसका अपना
देश है या उसने इसे अपने देश के रुप मेँ स्वीकार किया है और उसे यहाँ शरण
मिली है । उसका कर्त्तव्य है कि वह भारत की राष्ट्रीयता मेँ उस प्रचंड
शक्ति का संचार करे , जो उसे परंपरागत विरासत के रुप मेँ मिली है । "
देश-विदेश के भ्रमण उपरान्त कई बार निवेदिता विचलित हो जाया करती थी , एक
बार तो ऐसा भी लगा कि "भारत अभी भी आत्म-सत्ता के प्रति जागृत नहीँ है और
न ही यह देशवासी मानवीय-जीवन और सभ्यता मेँ अपने को पुनर्प्रतिष्ठत करने
के लिए तैयार है । नि:संदेह यही सोच भारत मेँ पुनर्जागृति लाने के लिए
साहसी अनुष्ठान लायी ।"
स्वामी जी के मिलन ने निवेदिता के मन मेँ अनेकानेक बातेँ जड़ दिए थे ,
जिसे भूलाना मुनासिब नहीँ समझ रही थी । एक दिन स्वामी जी स्वयं निवेदिता
को बताये थे कि अगले पचास वर्षोँ मेँ यह होगा कि भारतीय पहले भारत माता
की पूजा और बाद मेँ अन्य देवी-देवताओँ की पूजा करना शुरु कर देँगे , जो
दिव्य दृष्टि का सोच था । निवेदिता द्वारा समय-समय पर व्याख्यान ,
परतंत्रता की जंजीड़ से जकड़े भारतीयोँ को उत्तेजित करता रहा , जो आज भी
आत्म-सात की जरुरत है , भले ही हम स्वतंत्र क्योँ न होँ ?
उन महान सोच का उद्धरण था - " मुझे इस देश अपना हल इतनी ज्यादा गहराई तक
चलाने दो ताकि यह यथासंभव समस्याओँ की जड़ तक पहूँच सके । इसे एक कक्ष से
नीरव संदेश भेजने वाली अदृश्य ध्वनी का रुप ग्रहण करने दो , अथवा ऐसे
व्यक्तित्व का रुप ग्रहण करने दो जो बड़े-बड़े नगरोँ मेँ छा जाए - मुझे कोई
चिँता नहीँ है ।
किन्तु मेरे शक्तिदाता ईश्वर का यह आदेश है कि मैँ पश्चिम की सारहीन
बातोँ पर उत्तेजित होकर अपनी शक्ति नष्ट न करुँ । मैँ समझती हूँ कि इसकी
अपेक्षा तो यह होगा कि मैँ आत्महत्या कर लूँ । जहाँ तक मेरा संबंध है
भारत ही मेरा प्रारम्भिक उद्देश्य और अंतिम लक्ष्य है । यदि देश की इच्छा
हो तो पश्चिम की ओर निहार सकती हूँ । "
उन्होँने स्वदेशी अंदोलन तथा विदेशी वस्तुओँ को बहिष्कार करने का भी
स्पष्ट शब्दोँ मेँ समर्थन किया था ।
उन्होँने कहा - "पूरे स्वदेशी अंदोलन मेँ साहस और आत्म-निर्भरता की भावना
परिलक्षित होती है । सहायता के लिए कोई भीख नहीँ मांगता , रियायतोँ के
लिए कोई चापलूसी नहीँ करता , कभी ऐसा समय आयेगा , जब भारत मेँ विदेशोँ से
कोई वस्तु खरीदने वाले किसी व्यक्ति को आज की भांति गौ-हत्या करने वाला
व्यक्ति माना जायेगा , क्योँकि निश्चित रुप से नैतिक स्तर पर दोनो अपराध
समान है , जिसके अनुसार भारत के लोग अवसर आने पर सच्चे रुप मेँ अपना साहस
दिखा सकते है । "
यह सारा कमाल स्वामी जी का था जिन्होँने अपना उद्देश्य बना लिया था कि
भारतीय युवकोँ की मांसपेशियां लोहे की तरह और स्नायु इस्पात की तरह हो ।
सिस्टर निवेदिता पूर्णरुपेण समझ चुकी थी कि न ही रुढ़ीवादिता और न ही
मात्र विदेशी विचारोँ को अपनाने से उद्धार हो सकता है । उनका विश्वास था
कि भारत मेँ अपने आप मेँ ही इतनी शक्ति है कि अपना पुनर्त्थान स्वयं कर
सकता है ।
स्वामी विवेकानन्द जी से अटूट लगाव के कारण ही अंतिम क्षण तक निवेदिता को
अपना बनाये रखा । स्वामी जी की मृत्यू के पश्चात उनके चिता के पास कई
गणमान्य व्यक्ति मौजूद थे । उस समय एक आश्चर्य चकित घटना हुई - चिता से
उड़कर हवा के साथ एक कपड़े का टुकड़ा निवेदिता के पैड़ोँ तक आ पहूँचा । जो एक
असीम आकांक्षा का दोत्तक बना । इस तरह देश की सेवा करते करते स्वयं एक
दिन जीवन का अंतिम पड़ाव पर पहूँचने को उतावला दिखी । उतार-चढ़ाव को झेलते
हुए देश प्रेम की भाव जेहन मेँ समाए रखी । अपनी साहसिक प्रयास से भारत
भ्रमण करते हुए विदेशोँ का भी दौरा से पीछे नहीँ रही । और आखिर कर अपने
निराकार देह को भारत प्रेम का सात्विक आहुति दे दी । 13अक्टूबर 1911का वह
दिन जो सुर्योदय का अंतिम क्षण था । आज भी दार्जलिँग के नागरिकोँ ने उसकी
अंत्येष्ठि के स्थान पर स्मारक बनाए हुए हैँ और श्रद्धा पूर्वक उस स्थान
पर अंकित है -सिस्टर निवेदिता की यह विश्राम स्थली है ,
जिसने अपना सर्वस्व भारत को अर्पित कर दिया ।
इतना ही नहीँ साहित्य जगत मेँ भी उनका नाम अग्रणी है । बहुसंख्यक पुस्तक
की रचयिता रह चुकी हैँ जो भारत की परंपरा , धर्म और संस्कृति से जुड़ा हुआ
था ।
किन्तु आज स्वतंत्र भारत के मानवोँ का वह स्थिति है जो शर्मसार करने पर
तुला हुआ है । सत्ता लोभी अपनी सुविधा हेतु देश को मिटाने की ओर अग्रसर
है । किसी मेँ वह साहस नहीँ कि अपने अतीत को याद करते हुए बौने हो चुका
मन -मस्तिष्क को संवार सके । जबकि अपने अतीत को पढ़कर रोम-रोम विचलित होता
दिख रहा है । आगामी कुछ वर्षोँ मेँ वह दिन भी दूर नहीँ है , जिस तरह सांढ़
लाल कपड़े से भड़काऊ हो जाता है , ठीक उसी प्रकार आम लोग सफेद कपड़ोँ वालोँ
से भड़क जाया करेँगेँ । जिसने इस प्रभावशाली अतीत को मटियामेट करने का
मुहिम जारी रखे हुए हैँ ।
संजय कुमार "अविनाश"
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