युवा कथाकार संजय कुमार अविनाश की यह लम्बी कृति का शिल्प उपन्यासिका का
है - न लम्बी कहानी और न लघु उपन्यास बल्कि दोनो के बीच का शिल्प जिसे
अंग्रेजी मेँ नॉवलेट और हिन्दी मेँ उपन्यासिका कहा जाता है ।
मीनाक्षी प्रकाशन , शकरपुर , दिल्ली 92 ने इसका प्रकाशन सन् 2011ई. मेँ किया है ।
सम्प्रति , हिन्दी साहित्य मेँ कथा लेखन अथवा काव्य लेखन के द्वारा तीन
तरह के विमर्श होते हैँ - नारी विमर्श (नारी-सशक्तिकरण ) , दलित विमर्श
और आदिवासी विमर्श । यह प्रसन्नता की बात है कि संजय कुमार अविनाश ने
स्वतंत्र रुप से वेश्या-विमर्श प्रस्तुत कर मिथक तोड़ा है । नारी-विमर्श
मेँ सेक्स वर्क्सस को सम्मिलित नहीँ किया जाता है । बल्कि नारियोँ (सद्
गृहिणियोँ ) पर पुरुषोँ के अत्याचारोँ को दिखलाया जाता है । आज की
बिंदास लेखिकाओँ - कृष्णा सोवती , मन्नू भंडारी , उषा प्रियंवदा , ममता
कालिया , रमणिका गुप्ता , दीप्ति खंडेलवाल , मैत्रेयी पुष्पा , अलका
सराबगी तथा नमिता सिँह वगैरह ने नारी - अंदोलन को ध्यान मेँ रखकर खूब
लिखा किन्तु किसी ने उन नारियोँ पर इतना विस्तृत विचार नहीँ किया है ,
जितना इस युवा लेखक ने पूरे साहस के साथ किया है । एक ही पुस्तक मेँ
वेश्याओँ का इतिहास शोधात्मक रुप मेँ कथात्मक शैली मेँ प्रस्तुत करना
असाधारण प्रतिभा का काम है ।
लेखक की यह पहली कृति है किन्तु विस्तृत अध्ययन से सम्पूरित है ।
इन्होँने 'चित्रलेखा' {भगवतीचरण वर्मा} , 'वैशाली की नगरवधू' {आचार्य
चतुरसेन शास्त्री} , 'टेम्पूल प्रोस्टिच्यूशन' {वसंत सेन} , 'चरित्रहीन'
{शरतचन्द्र} , 'ब्लेकडेज' {तस्लीमा नसरीन} , 'रसीदी टिकट' {अमृता प्रीतम}
, 'सुहाग के नुपूर' {अमृतलाल नागर} , के अतिरिक्त बंगाल की 'विनोदनी
दासी' की कहानीं , कमलादास की 'मेरा जीवन' आदि रचनाओँ को खूब पढ़ा है ।
एक तरह से ऐतिहासिक , सामाजिक सर्वेक्षण करते हुए इन्होँने निष्कर्ष
निकाला है कि वेश्यारुप मेँ अभिशप्त जीवन जीनेवाली नारियोँ का वजूद
सर्वकालिक है । पुराकाल से आज तक ऐसी यौन व्यापार करने वाली नारियाँ कभी
सम्मानित रुप मेँ और कभी सामुहिक रुप मेँ उन नारियोँ से भिन्न रही है जो
गृहिणी बन कर रहती है । ऐसी नारियाँ चाहे नृत्य करती होँ अथवा संगीत का
सहारा लेती होँ किन्तु वे कभी खाश और कभी आम बनकर ही रह जाती है ।
राजे-महराजे की वे राजनर्तकी हो अथवा उनकी रखैल किन्तु उन्हेँ सामाजिक
मर्यादा नहीँ मिलती थी ।
मनोरंजन करना ही उनका दायित्व था । उन्हेँ राजकीय संरक्षण प्राप्त था
किन्तु पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर वे अलग थी ।
देवदासी , वारवधू , लोकांगना , वारांगनाएँ , रुपाजी , पण्यस्त्री , गणिका
अथवा वेश्या मेँ सारे संबोधन लगभग वेश्या सूचक ही है ।
लेखक ने अद्यतन जानकारी दी है कि आज कुल लगभग ग्यारह सौ सत्तर रेड लाइट
एरिया है जिनमेँ यौन कर्मियोँ की संख्या लगभग तीस लाख है । सन् 1956ई.
मेँ आजादी के बाद भारत सरकार ने सिता एक्ट लाया था । जिसके अनुसार
शारीरिक-व्यपार प्रतिबंधित हुआ था केवल मनोरंजन के लिए गायन की स्वीकृति
थी । परन्तु , वेश्यावृत्ति रुकी नहीँ बढ़ती गयी ।
पुन: 1986ई. मेँ पिटा एक्ट वेश्याओँ के सुधार के लिए लाया गया । उच्चतम
न्यायलय ने भी पूर्णत: वेश्यावृत्ति पर रोक का कानून पारित नहीँ किया है
।
सम्प्रति , भारत के महानगरोँ मेँ देह-व्यपार प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रुप
से जारी है । कलकत्ता , दिल्ली और बम्बई मेँ वेश्यावृत्ति के विविध
प्रकार है । बड़े-बड़े होटलोँ मेँ कॉल गर्ल्स उपलब्ध है ।
संजय कुमार अविनाश ने पूरे देश के उन स्थानोँ का विस्तृत ब्योरा दिया है
जहाँ वेश्यालय है । लाखोँ मेँ उनकी संख्या है ।
भूमिका मेँ डॉ. रमेश नीलकमल ने सही लिखा है - "अंतहीन सड़क श्री संजय
कुमार का एक औपन्यासिक अनुष्ठान है । इसमेँ पूरे विश्व मेँ व्याप्त
वेश्यावृत्ति पर विस्तृत विवृत्ति है जो , लगता है , वेश्या जीवन पर
प्रकारान्तर से एक शोध है ।"
प्रश्न है कि उपन्यासकार क्या विकल्प देना चाहता है । प्रेमचन्द ने
वेश्याओँ के लिए 'सेवासदन' की कल्पना की थी जो कल्पना ही रह गई । लेखक ने
एक दिव्या नाम की वेश्या को कथा-सृत का माध्यम बनाया है । ऐसा नहीँ करने
पर यह पुरी पुस्तक वेश्याओँ के विविध प्रकार , उनकी संख्या एवं उनके
निवास-स्थान की विवरणी बन कर रह जाती । कथानक की पठनीयता के लिए कुछ
पात्रोँ को प्रस्तुत किया गया है । वाराणसी मेँ एल.एल.बी. के अध्ययन के
लिए अविनाश , जमशेदपुर का विवेक तथा कलकत्ता का असफाक साथ-साथ रहते हैँ ।
उस मंडली मेँ कलकत्ता की नुसरत परवीन भी सम्मिलित हो जाती है । चारोँ का
संकल्प होता है कि वेश्या जीवन के अंत के लिए प्रयत्न किया जाए । वेश्या
बनने के कारणोँ की तलाश हो । वे साहस और निस्संकोच रुप से वेश्याओँ के
पास जाते हैँ । कहीँ-कहीँ फीस चुकाते हैँ । उनकी कोठरी मेँ प्रवेश करते
हैँ ।
वहाँ की गंदगी और परिस्थिति से रुब-रु होते हैँ । वेश्याओँ से बात करते
हैँ । उन्हेँ विश्वास मेँ लेते हैँ । उनकी जीवन-गाथा से परिचित होते हैँ
। उन्हेँ नये जीवन के शुरुआत करने के लिए प्रेरित करते हैँ । कुछ
वेश्याएँ अपनी विकल्पहीनता की बात करती हैँ । कुछ सामाजिक भय का उल्लेख
करती है । कुछ आर्थिक विपन्नता बतलाती हैँ । वे बतलाती हैँ कि गंदे
रास्तोँ से अलग राजमार्ग पर चलने की इच्छा है किन्तु वर्त्तमान जीवन की
सड़क की कोई मंजिल नजर नहीँ आती है । लेखक ने इसलिए रचना का नाम रखा है
"अंतहीन सड़क" ।
वेश्याओँ का निजी जीवन कितना कंटकाकीर्ण और अंधकारपूर्ण है , यह सबकुछ इस
रचना मेँ यथार्थवादी ढ़ंग से व्यक्त किया गया है ।
आश्चर्य होता है कि लेखक ने 'काजल की कोठरी' मेँ किस तरह जाकर अपने को
बेदाग रखा है । कल्पना से ऐसा वर्णन मुझे संभव नहीँ लगता है । कलकत्ता का
सोनागाछी तथा बम्बई के कमाटीपुर फॉकलेण्ड के पास की वेश्याओँ का जो खांका
खीँचा है , वह विस्मित करता है । 65प्रतिशत वेश्याएँ आर्थिक विवशता के
कारण बनती है । विवाह-संस्कार के कठोर नियम , दहेज-प्रथा , विधवा विवाह
का प्रतिबंधित होना , बलात्कार , अनमेल विवाह तथा तलाक आदि अन्य प्रधान
कारण है जो वेश्याओँ को जन्म देते हैँ ।
सभी मित्रोँ ने दिव्या (फरहद) , कशिश , सारिका तथा उर्मिला खातुन आदि के
संपर्क से वेश्या जीवन के तमाम रहस्योँ को जानने का प्रयत्न किया है । एक
तरह से सभी मित्रोँ ने अपने अध्ययन से विरत होकर वेश्या-निवारण के लिए
अपने को झोँक दिया । यह थोड़ा अस्वाभाविक लगता है ।
कथानक मेँ वेश्याओँ के वर्णन मेँ अनेक बार विश्लेषण हुआ है । ऐसा होते
हुए भी यह रचना कहीँ से भी उत्तेजक , अश्लील और story of flash
{मांसल-कथा} नहीँ है । इन दिनो जिस तरह की hot books लिखी जा रही है
जिनमेँ तस्लीमा नसरीन , विक्रम सेठ , अरुणधति राय तथा सुलेमान रुश्दी के
नाम प्रमुख हैँ , उनसे भिन्न यह पुस्तक है "अंतहीन सड़क" जो वेश्याओँ के
प्रति आकर्षण नहीँ बल्कि विकर्षण पैदा करती है । उनके अभिशप्त जीवन के
लिए सहानुभूति पैदा करती है । उनके कारणोँ के प्रति आक्रोश पैदा करती है
।
हाँ , पुस्तक का कमजोर पक्ष इसका भाषा शिल्प है जो अगले संस्करण मेँ
चुस्त-दुरुस्त होगा ही । ऐसी सुन्दर कृति के लिए इस युवा लेखक को
आशीर्वाद सहित शतश: बधाइयाँ है ।
पुस्तक- अंतहीन सड़क
लेखक- संजय कुमार 'अविनाश'
मेदनी चौकी , पत्रा. - अमरपुर , जिला-लखीसराय बिहार 811106
समीक्षक- डॉ. (प्रो.) दीनानाथ सिँह
पूर्व अध्यक्ष एवं आचार्य स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग , वीर कुंवर सिँह
विश्वविद्यालय आरा- 802301
प्रकाशक - मीनाक्षी प्रकाशन , एम. बी. 32/2 गली नं. -2 , शकरपुर , दिल्ली 92
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