योँ तो सम्पूर्ण विश्व ही असमानताओँ से त्रस्त है किँतु खाशकर हमारा
ग्रामीण समाज कुछ ज्यादा ही संवेदनशील होता जा रहा है । जिसका
विध्वंसकारी नतीजा देखने को प्रायः मिलता आ रहा है । अधिकारोँ का असमानता
तो व्यापक रुप से प्रभावकारी होता जा रहा है । पंच सरपंच से लेकर
प्रधानमंत्री तक , ग्रामीण पुलिसकर्मी से लेकर राष्ट्रपति तक तथा निचली
अदालत से लेकर सर्वोच्य न्यायलय तक के अधिकारीगण इस दलदल के आगोश मेँ
लिपटे पड़े हैँ । ऐसे कुछ अधिकार देना व्यवस्था के लिए समाज की आवश्यकता
भी है किँतु समस्या तब विकरालरुप धारण करने को आतुर हो जाती है जब अधिकार
को पूर्ण अधिकार या अपना जागिर समझा जाने लगता है । आपसी तकरार , छीना
झपटी एवं स्वाभिमान का नाम देकर आम जनोँ का जीना दुभर करने को बेताव
दिखता है । आर्थिक असमानता भी कम खतरे की बात नहीँ है , वो भी छोटी
मछलियोँ को निगलने के समान दिन प्रतिदिन बलवती होती जा रही है । प्रवृति
की असमानता तो जेहन मेँ विद्दमान है । शराफत कमजोर होती जा रही है तथा
धूर्तता अथवा अपराधवृत्ति लगातार अपनी जड़े मजबूत करती जा रही हैँ ।
स्वतंत्रता के बाद लगातार चालाक , धूर्त एवं अफराधियोँ के लगभग सभी
क्षेत्रोँ मेँ सफलता का ग्राफ ऊँचा हो रहा है वहीँ दूसरी तरफ गरीब कहे
जाने वाले मजदूर , किसान , वेरोजगार एवं इंसान ईमानदार व्यक्तित्व वालोँ
का ग्राफ गिरता जा रहा है ।
इससे भी भयानक असमानता सामाजिक असमानता है जो आजादी के 65साल तक मेँ भी
बदलने की कुवत नहीँ बना पाई है । यह धार्मिक तथा जातीय स्वरुप मेँ हर गली
मेँ विद्दमान है , स्वतंत्रता बाद लगभग हर भेद मेँ कमी आई पर न जातीय भेद
समाप्त हो पाया न ही लिँगभेद ।
जातीय भेद के बजह से तो हर ओर भयानक त्रासदी का सामना करना पड़ रहा है
नतिजा खौफनाक परिणाम । यहाँ तक कि यही जातीय भेद अपने राज्य मेँ ही नहीँ
बल्कि घर मेँ , गाँव मेँ पांव पसारने से पीछे नहीँ मानती जिसे हम सब
नक्सली माओबाद नाम से पुकार रहे हैँ । अपने अपने कस्वे मेँ बहुसंख्यक
माने जाने वाले दबंग प्रवृत्ति का सोच हर दिशा से प्रहार कर गरीब मजदूर ,
किसान एवं इंसान व्यक्तियोँ को जीवन धूमिल करने को विरासत की दी गयी
उपहार मान बैठा जो आजाद मुल्क की घिनौना करतूत है । यहाँ तक की अपने बड़े
पदाधिकारियोँ का आदेश भी आम जनोँ के संरक्षक माने जाने वाले पुलिस कर्मी
तक अवहेलना करने से नहीँ कतराते ।
संजय कुमार अविनाश
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