संजय कुमार अविनाश
परम मित्र आशीष और अनल आपस में बातें कर रहा है । अनल की व्यस्तता समझ
में नहीं आती । आशीष अनल को समझाने का प्रयत्न कर रहा था ।
अनल ! खामखाह राष्ट्रीय धरोहर , कभी राष्ट्रीय गीत तो कभी राष्ट्रीय
भाषा , जब देखो राष्ट्रीय राष्ट्रीय , ये क्या रट लगा रखे हो ? इस तरह की
अनर्गल विलाप को भूला दो ।
आजादी के पहले किसने क्या किया ?
कितनी कष्ट उठानी पड़ी ?
आखिर इस तरह की गणना किस मंजिल की ओर ले जायेगी ?
1947 के पहले को संभाले हुए रहते तो , क्या होता ? सड़केँ भी गड्डे मेँ
तब्दील हो जाती , जो बड़े बड़े महल देख रहे हो वो भूतबंगला दिखाई पड़ता ।
यहाँ तक की अंग्रेजोँ भी अपने गोरेपन को बनाये रखता और हम सब आज तक उसके
पंजे मेँ जकड़े रहते ।
छोड़ो ये सब कहानी , कविता । हॉलीवुड देखो , देखा तब तो बॉलीवुड बन गया
फिर पॉलीवुड बना ।
अब वैसा कुछ कर जिससे तकदीरवुड , मनीवुड की बात सामने आ सके ।
अनल- कैसी बातेँ करते हो ? अपने अतीत को संभाल कर रखो , अपने पूर्वजोँ को
याद करो ! उनके नक्शे कदम पर आगे बढ़ो , ये जो दिखावे का भौतिकता के पीछे
परेशान हो शांति नहीँ पहूँचा सकती - बीच मझधार मेँ ही जीवन का आखिरी
पन्ना सफेद छोड़ जायेगी ।
आशीष- क्या तुम कर लिए हो ? कितने कहानी - कविता आया और चला गया । क्या
मिला ? मोटी-मोटी किताबेँ लिखने वालोँ को । कई काव्यग्रंथ लिखकर चल दिये
।
अतीत को संभाले रहो - पूर्वज एक धोती पहनते थे , उसी मेँ बदन को ढ़कते भी
थे । खाली पैर चलते थे , कांटो का चुभन महसूस करते थे । "परिणाम शुन्य ।"
निहारते रहो अपने अतीत को और मिलान करो मोटी-मोटी तह बनाने वालोँ से ,
वही आदत , वही सोच , वही विरासत से मिला पूंजी "खटहरे चप्पल है जो आधे
रास्ते मेँ साथ छोड़ चला जायेगा ।" कपड़े से पहचाने जाओगे- 'कोई किस्सा
कहानी लिखने वाला होगा । ' जबकि साहित्य ऐसे लोगोँ से ही उत्पन्न हुआ है
-बाकि तो एक भौतिक कामुकता ।
दो रंग का फीता रहेगा । दो चार रंग कमीज का बटन । झुलते रहो सारा जीवन ।
अपने को कहानीकार , उपन्यासकार , कवि जैसे सम्मान शब्द को ढ़ोते रहो ।
दो चार बार वाह-वाह सुन लो , बस भूखे तन सैर करते रहो । आगे कुछ नहीँ मिलने को ।
"अनल अन्दर से खीज रहा था ।" गुस्सा भी नहीँ दिखा सकता है । बुरे-भले समय
मेँ मित्रोँ से उम्मीद किया जाता है । आशीष भी अच्छे मित्रोँ मेँ था ।
अनल आशीष से कहा - तुम समझने का प्रयास करो । भाषा , संस्कृति भूल जाओगे
तो राष्ट्रीयता की कल्पना भी बेईमानी होगी , हमारे देश की किसी भी धर्म
की परंपरा हो , संस्कृति हो , आस्था पर ही टिका है वरना भौतिकता की
चकाचौँध मेँ ऐसे उमड़ते रहोगे , वादलोँ के तरह घुमड़ते रहोगे , कहीँ एक
टीले से टकराया की गया काम से । फिर वही अतीत चाँद , सूरज की रेतिली ,
चमकीली रौशनी ही आश्रय बनेगा बाकि सारा सोच विलीन हो जायेगा .......।
आशीष-- मैँ बार-बार कहता हूँ , सिर्फ किताबोँ की बात मत कर । उसे करीब से
झांककर देख । थोड़ा अपनी सोच बदल । देखोगे साहित्य की दुहाई देने वाले
जिन्दगी कैसे गुजारे ? कोई बेगम आई रातोँ-रात लिखने मेँ महारत हासिल कर
रौशन हो गयी ।
भाषा , भाषा चिल्ला-चिल्लाकर रहने वाले यूं ही मंच सजाते रहे । गैर भाषा
को अपना बनाया , कई फिल्म वालोँ का दस्तक शुरु , वो भी रातोँ -रात
करोड़पति । जान लो अंतर इतना ही है की उनलोगोँ का अपना सोच था । मंजिल
पहूँचने का खुद का बनाया रास्ता । मैँ तुम्हेँ इस तरह के कई जगहोँ तक
पहूँचाऊँगा , दिखाऊँगा जहाँ अतीत भूला विसरा कहानी बन बैठा ।
आज देख बहाई मंदिर , 1985 मेँ बना और आज दिल्ली का सबसे भीड़-भाड़ वाला
पर्यटन स्थल मेँ शुमार हो गया । इन्द्रप्रस्थ पार्क देख जोड़ोँ का जमावाड़ा
। हिन्दी भवन भी जाकर देख ले । सप्ताह मेँ कभी राष्ट्रीय सम्मेलन , कभी
राजभाषा सम्मेलन तो कभी अन्तर्राष्ट्रीय । परिणाम क्या ? वही ढ़ाक के तीन
पात ।
वैसे लोगोँ का आना होता है , जिसे एक कागज पर कुछ लिखा मिलना तय हो ।
लम्बी -लम्बी बातेँ करने वाले हिन्दी मनीषी , हिन्दी को उच्च शिखर पर
पहूँचाने वाले महानुभाव , संकल्प को दुहराने- तिहराने वाले एक ही कपड़े को
कई तह पहने हुए वंडिल साहव गला फाड़-फाड़ कर कहते हैँ -यह विश्व भाषा बनने
की कगार पर है । दुनियां मेँ सबसे अधिक देशोँ मेँ बोली जाती है । विश्व
के अनेक विश्वविद्दालयोँ मेँ पढ़ाई जाती है ।
अनल ! एक बार उन महानुभाव से सीने पर हाथ रख कर पूछ तो लिया कर की उनका
बेटा कहाँ है ? कैसे अमेरिका , जापान , फ्रांस पहूँच गया ? वहाँ हिन्दी
का प्रचारक -प्रसारक बनने का ढ़ोल पीट रहा है । शायद बता दे - बतायेँगे ही
क्योँकि औरोँ के अपेक्षा साहित्यकार ईमानदार माने जाते हैँ - पता चलेगा
कि उनका हर एक कार्य परतंत्रता के सहारे नाच रहा है । भद्दी सोच को बनाए
हुए है , उसे जकड़े पड़े हैँ - कि मेरा बड़ाबड़ी न कर पावे ।
इसीलिए हिन्दी का ढोँग रचता जा रहा है । सच बतायेँगे तो उन्हेँ स्वयं
लज्जित होना पड़ेगा । आज विश्व के किसी भी कोने मेँ हिन्दी जड़ बनता जा रहा
है तो उसको सीँचने वाले गरीब मजदूर हैँ जो अपनी पेट का ज्वाला शांत करने
के लिए परदेश का सहारा लिए , किसी अन्य भाषा से अनजान रहते हुए हिन्दी को
पकड़े रहे , हर जगह काले जैसे घृणित शब्दोँ का प्रहार सहते हुए हिन्दी को
बचाये रखा । आज उस अस्तित्व को बनाने का श्रेय अपने माथे घूम-घूम कर बता
रहे हैँ ।
तुम भी वही करने जा रहे हो । अपना हर एक कार्य फिजूल के चक्कर मेँ लुटाते
जा रहे हो , जब जानते हो कि हिन्दी विश्व के कोने - कोने मेँ बोली और
समझी जाती है । दुनियां की आबादी का दूसरी बोली जाने वाली भाषा है , तब
क्योँ परेशान हो ? यही न कि तुम्हारा नाम हो जाए । भूल जाओ इस आडंबर को ।
ऐसी कोई तरकीव निकाल जो एक कपड़े भी बदन पर कम पड़ रहा है उसे तह बनाकर
वंडिल बनाने की प्रयास कर । कोई काम धंधा कर , कल बच्चे होँगे ,
पढ़ाई-लिखाई , शादी-विवाह , ढ़ेर सारे लफड़ा उसे संभालना मुश्किल हो जायेगा
।
अनल तंग आ गया ।
बोला - छोड़ इस बात को कल प्रवीण का शादी है । चलोगे या नहीँ ।
आशीष - वहाँ भी तो वही बातेँ होगी । राष्ट्रकवि दिनकर जी का जन्म स्थान ,
दिनकर नगरी के नाम से भी जाना जाता है । तुम तो वही करोगे । देखना ,
सोचना , पढ़ना , फिर दो - चार रुपिये का कागज-कलम की बरबादी । तुम जाओगे ।
मैँ नहीँ जा पाऊँगा । मुझे घृणा आती है इस तरह के निक्कमोँ पर ।
अनल को गुस्सा भी आ रहा था । स्थिति वही जो बिछावन पर एक खुंखार अपराधी
का पत्नी के सामने होता है ।
तब भी बोला - चलोगे । देख लोगे अतीत को । वहाँ के लोग कितना सम्मान करते
हैँ । बार -बार परंपरा , संस्कृति की बात करते हो , सामने दिखेगा ।
आशीष - तब तो चलुंगा , देख भी लुंगा की हमारा समाज कितना दूरी तय किया है
? ऐसे कहीँ पढ़ा होगा - दिनकर नगरी मेँ ईँट-ईँट पर उनका नाम लिखा है ।
दिवारोँ पर कहीँ हुंकार तो कहीँ उर्वशी याद आती है । सिँहासन खाली करो की
भी बात दुहराई जाती है । चलोगे ! मैँ तैयार हूँ ।
दूसरे दिन 24फरवरी 2013 सिमरिया गाँव जो बेगूसराय जिला अन्तर्गत बिहार
प्रांत मेँ बसा है । हरियाली का चकाचौँध । असीम ठंडक माहौल से वशीभूत ।
उस पावन धरती को अनल मन-ही-मन प्रणाम किया । उस मिट्टी की महक दिलो दिमाग
मेँ एक उर्जा प्रदान किया ।
रोम-रोम प्रफुल्लित हो उठा ।
बारात गाँव घूमने के दौरान अनल को साहस प्रदान किया । ग्रामीणोँ के घर के
दिवाड़ पर दिनकर जी का कविता पढ़ने को मिला जो उत्साह को बढ़ाने का काम किया
। बीच बीच मेँ आशीष को दिखाता था । देखो , आशीष अपने अतीत को किस तरह से
संजोये हुए है ।
आशीष चुप अपना हार देख लज्जित दिख रहा था । बोले तो क्या ? प्रमाण सामने ।
आखिरी दौड़ के बाद बारात कन्या द्वार पहूँच गया । प्रथम किस्त के बाद
जयमाल का दौड़ चला ।
कन्या पक्ष से अभिनंदन पत्र पढ़ना प्रारम्भ हुई । पढ़ने वाले भी शायध
हिन्दी के मनीषी ही थे ।
काव्य पाठ की धारा बहाते हुए , जयमाल की ओर पहूँच चुका , दो अनजानोँ को
परिणय बंधन तक छोड़ आये । परन्तु , न दिनकर जी की कविता , न ही चर्चा ।
जैसे खुद मेँ लग रहा था दिनकर जी का नाम लेकर कहीँ स्वयं को बौना न सावित
कर ले । जगह-जगह कविता , पत्थरमूर्त रुप धरोहर भी समाप्त हो चुका ।
आशीष टपक पड़ा - देख लिया न अनल क्या मिला ? उनका ही काव्यपाठ होता रहता
तो शायद विवाह का लग्न खत्म हो जाता ।
पुन: लाउडस्पीकर से आवाज आई- अगर कोई बारातगण अपनी बातेँ रखना चाहते हैँ
तो रखेँ । उनका अभिनंदन है । अनल आनन-फानन मेँ उठा और माईक हाथ मेँ ले
लिया ।
" बड़ी ही हर्ष के साथ कहना पड़ रहा है कि जिस महान व्यक्तित्व का पहचान
भारत ही नहीँ बल्कि सम्पूर्ण विश्व सम्मान देने को व्याकुल है , इस पावन
धरती का सौँधी मिट्टी का सुगन्ध देश-विदेश के विद्वानोँ को ललायित करता आ
रहा है । आज इस धरा का स्पर्श एक अलौकिक सुख का अनुभूति प्रदान तो किया ।
किन्तु , असहनीय पीड़ा भी कम नहीँ । उन महान आत्मा की चर्चा काव्यपाठ से
भरा पुरा लम्बी पृष्ठ अभिनंदन पत्र से लेकर परिणय बंधन तक मेँ आये - गये
आगन्तुकोँ के द्वारा चर्चा तक नहीँ कर पाना , दुषित मन का परिचायक है या
दूसरा रुप मेँ कहेँ तो अपने मेँ मग्न समुदाय , समाज अपने अतीत को भूलते
हुए नैतिक एवं चारित्रिक मूल्योँ को गिराने पर विवश दिखा । उसे लग रहा है
कि दिशा बदलने से हमारा समाज , पीढ़ी बच सकता है । जो अनर्गल विलाप है ।
समाज द्वेषित भावना से पीड़ित है । इसे बचाने का प्रयत्न करेँ । निरर्थक
सपनोँ को देखना छोड़ देँ । अन्यथा , एक दिन वह भी देखने को मिलेगा-एक
बच्चा अपने पिता का नाम भी नहीँ जान रहा है । जो गिरती मानवीयता , मिटती
सोच का आवरण ढ़क , लुढ़कता चला जायेगा ।
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