Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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अपना लहू

 

 

सिसकती, कराहती वेदना से अपूर्ण
लाडली की कोमल त्वचा को निहारती
पलक बंद अन्दर ही अन्दर मुस्कुराई
मैँ सफलता अर्जित कर ली
कटीँली राहोँ को भेद दी
मातृत्व की सीमा छू ली
आकाश से ऊँचे सपने
गंगा-सी पवित्र मन
पिछले जन्म की वरदान
आँखोँ के सामने उथल मचाई !

 

धीरे-धीरे गढ़ता रहा
अंगुली छोड़ फुदकती रही
आया दिन दौड़ने का
शमा-सी लहराई
आँखोँ मेँ सपने सजाई
कटी पतंग की तरह
कभी-कभी
विचलित भी कर आई !

 

मातृत्व प्रेम परख न पाया
रात की बेला सुबह कहलाया
चिड़िया की कलरव
बंद दिवारोँ से टकराई
सारे रस्म, रिवाज निरुद्देश्य
पल विखंडित हो चला !

 

अरी ! मेरी लाडली कहाँ ?
कोई भेड़िया आया
कुत्ते आया
जरुर हिँसक आया होगा
कोमल-सी त्वचा को छेड़ा होगा
मांसल सुख भोगा होगा
फिर मिट्टी मेँ मिलाया होगा
नये बनाने के फिराक मेँ !

 

मेरी जुही, चीनार सी रंगीली
मिट गई होगी !
नहीँ ! वह तो भोली थी
नाजुक थी
गरिमामयी थी
अपनत्व की रेखा थी
एक ही लहू की दशमलव थी
आयेगी , जरुर आयेगी !

 

मिटती तो नश्वर शरीर है
उपरी कपाल है
गोरा चिथड़ा है
उसे कौन रखेगा
कब तक संभालेगा
एक दिन चैतन्य जगेगी
वह आयेगी
मानव छोड़ मानवता लेकर
धोखेबाज भेड़ियोँ को छोड़कर
नये इतिहास रचाकर
दुष्कर प्राणी को पहचानकर
मेरे लहू से लिपट जायेगी !

 

काश ! मैँ सुन पाऊँ---
पिताजी ! मैँ आ गई---
रास्ता भटक गई थी---
लो , मैँ अनजाने मेँ ही सही
मिल गई---!
पहचानो ! मैँ ही हूँ ---
विचलित क्योँ ? निराशा कैसी ?
आ गई न !!



संजय कुमार अविनाश

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