कैसे किसी गरीब की बेटी बने दुल्हन ,
लोग रिश्ते तलाशते हैँ जागीर देखकर ,
कैसे कमजर्फ है ये ऊँचे मकान वाले ,
हम गरीबोँ का सूरज भी छुपा लेते हैँ ।
मुमकिन नहीँ है सबके लिए ताजमहल बनबाना ,
हर दिल के लिए मुमताज चाहिये ।
महल बनबाया शाहजहाँ के 'ताज' ने , इसे दुहराने के लिए दिलो ताज चाहिये ।
बमुश्किल पनाह की तलाश खंगाली जाती रही ,
मजहब की कहर निर्ममोँ से बिछुर्ती मिली ।
बेनतीजा हर लम्होँ के जमात मेँ पूर्वजोँ की सौगात लिए कहर बन आया ,
बेटियोँ की हर रक्त पानी की तरह बहाया ।
न मुमकिन भी नहीँ दुल्हन को सजाना लो इम्तेहान अपने जमीर का दिवाना ,
मिटा डाल जागीर के अफसाना
हर पल संबारने को बनी है
"मुमताज" जैसी बहाना !
संजय कुमार अविनाश
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