हिम-शिखर का संतान हो तुम ।
तुम पर खेल , खेल रहा है
जनमानस उसे झेल रहा है
राजनीति के उठापटक मेँ
अपनी माँ को बेच रहा है ।
राष्ट्र की महामहिम हो तुम ।
स्वार्थी ने तुम्हेँ मिटा दिया
राष्ट्र-निर्माता को आहत किया
रागद्वेष मुक्त मानवोँ का लाल पड़ा
माँ मेरी भ्रष्टोँ के बीच खड़ा ।
पाखंड , पंथ से अनजान हो तुम ।
हर बच्चोँ को स्वच्छ छवि की अभिलाषा
मिल न रहा उच्चकोँ से आशा जाति , जंग , जनगण-मन की बना रहे हो परिभाषा ,
भारत माँ को मिली हाथ निराशा ।
सच्चे भारत का निर्माण हो तुम ।
छोड़ इस पाखंड की राग ,
बना हर घाट को प्रयाग ,
जीवन भर के लिए प्रथम संतान ,
देश करेगी बार-बार सलाम ।
संजय कुमार अविनाश
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