Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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जा बसी दूर देश

 

माँ ! क्योँ गोरैया आना छोड़ गई
फुदक-फुदक दाना चूगना भूल गई
आती थी , मैँ हँसती थी
छोटू भी हँसता था
सुबह सुबह घर के कोनो मेँ फुदकती थी
चिड़िया रानी आती थी
मैना भी गाती थी
काली कोयल अपनी सुर मेँ निराली थी
बारिश की बूंदे टीप-टीप करती थी
घर-आंगन पानी से भर जाता था ।

 

अच्छा ! माँ , मैँ समझ गई
तू क्योँ अब तक गुमसुम दिखी
बारिश की बूँदे से उसका घर टूट गया
बादलोँ के गरज से सारे पक्षी डर गये
लबलबाती पानी से उसका भोजन बह चला
पेड़ोँ की कटाई से भू-उसकी विरान हुई
तब तो दूर देश मेँ जा बसी ।

 

माँ । बुलाओ न ।
अब तो वो भी बड़ी हो गई होगी
बचपन की याद उसे भी आती होगी
क्या बिछुड़न ? क्या हँसी-ठिठोली ?
हर पल उसे क्या ?
मुझे भी सताती है ।

 

माँ । अब तक क्योँ चुप रही हो
सचमुच , वो नहीँ आयेगी
तड़प-तड़प न जाने सारे प्राणी
यूँ ही बिछुड़ जायेगी ।
रोको । तुम ही तो माँ है --
निर्मात्री , अष्ठधात्री ---!
अपने ममत्व को दिखला दो
जगत जननी रुप दूहरा दो
वरना ! मैँ भी गोरैया , मैना संग ,
चली जाऊँगी---
अकेली रह न पाऊँगी ,
उड़ गगन ,
चिड़िया संग लहराऊँगी --- ।
माँ , मुझे बचा लो ,
उस बिन रह न पाऊँगी !!

 

 

संजय कुमार अविनाश

 

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