3जुलाई 1994ई. राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद जी लखीसराय
अनुमंडल को जिला का दर्जा प्रदान किया जो मुंगेर जिला का एक अनुमंडल हुआ
करता था । आज 19वर्ष के सफर मेँ कई जिलाधिकारी , पुलिस अधीक्षक एवं उप
विकास आयुक्त कैलेण्डर की तरह बदलते रहे , लेकिन जिला का स्वरुप सुदृढ़ के
बजाए विकृत होता गया । सात प्रखंड और अस्सी पंचायत से सुसज्जित लखीसराय
पौराणिक व ऐतिहासिक दृष्टिकोण से सामर्थवान है ।
राजा इन्द्रदमन , पालवंश के शासक एवं गौतम बुद्ध की धरती प्राचीन एवं
आध्यात्मिक इतिहास गौरव पूर्ण रहा है । प्राकृतिक छँटाओँ से परिपूर्ण ,
गंगा के गोद मेँ , पहाड़ोँ के तलहटी मेँ, नदियोँ से घिरे एवं मंदिरो का
समूह धरोहर रह चुका है ।
ऐतिहासिक तौर पर देखा जाए तो लखीसराय की स्थापना पालवंश के दौरान एक
धार्मिक प्रशासनिक केन्द्र के रुप मेँ की गई थी । खाश कर हिन्दु और
बौद्धोँ के लिए प्रसिद्ध है । बौद्ध साहित्य मेँ इस स्थान को "अंगुत्री"
के नाम से जाना जाता है । अर्थात जिला । इस क्षेत्र के लिए गौरव की बात
है कि बुद्ध काल से ही लखीसराय जिला था , यहाँ तक की पालवंश के समय मेँ
यह स्थान कुछ दिन के लिए राजधानी भी रह चुका है । यहाँ धर्मपाल से
संबंधित साक्ष्य भी प्राप्त हुआ है । जिले के बालगुदर क्षेत्र मेँ मदनपाल
का स्मारक (1161-1162) पाया गया है । इतिहास के अनुसार 11वीँ सदी मेँ
मोहम्मद बिन बख्तियार ने यहाँ आक्रमण किया था । शेरशाह ने 15वीँ सदी मेँ
शासन किया था । यही लखीसराय स्थित सूर्यगढ़ा मेँ शेरशाह और मुगल सम्राट
हुमांयू के बीच (1534ई.) युद्ध का साक्षी रहा ।
लखीसराय मुख्यालय भौगोलिक दृष्टिकोण से एक अलग पहचान रखती है । उत्तर मेँ
गंगा नदी , पूरब मेँ किऊल नदी , पश्चिम उत्तर कोने पर हरुहर नदी स्थित है
और दक्षिण छोटे छोटे गाँवो से घिरे प्राकृतिक छँटा । बाबा श्रूंगीऋषि धाम
से निकले मोरवे , महावीर की जन्मभूमि लछुवाड़ के जंगलोँ से निकली सोमे नदी
, भूरहा नदी , बड़हिया टाल से चौदह सोतेँ और लखीसराय स्थित तलाबोँ के
जमावड़ा । जो , नदियोँ के शहर के नाम से प्रसिद्धि दिलाती है ।
व्यवसायिक क्षेत्र मेँ भी अव्वलता हासिल किए हुए है । बालू का खाद्दान ,
चावल मिल , छोटे छोटे उद्दोग , छड़ फैक्ट्री यहाँ तक की देश के लगभग जिले
मेँ सिंदूर का व्यवसाय लखीसराय के लिए अपनी समृद्धि के लिए जानी जाती है
।
स्वतंत्रता सेनानी की बात की जाए तो वह भी अग्रणी कतार मेँ लिखी जानी चाहिये ।
9अगस्त 1942 को भारत छोड़ो अंदोलन के घोषणा के बाद से ही पूरे देश मेँ
आजादी की ज्वाला धधक उठी । लखीसराय भी उस गर्म लौ मेँ खुद को झोँकने मेँ
तत्परता दिखाई । गाँधी जी के आहवान पर स्थानिय क्रांतिकारियोँ ने "करो या
मरो" नारा देते हुए "अंग्रेजोँ भारत छोड़ो" की जयघोष की और अंग्रेजोँ को
खदेड़ कर पहली बार बड़हिया रेलवे स्टेशन , हाई स्कुल इंगलिश पर तिरंगा
फहराया । आजादी के गदर मेँ "अंग्रेजोँ भारत छोड़ो" मिशन के तहत
क्रांतिकारियोँ का जत्था 13अगस्त 1942 को जब लखीसराय स्टेशन पर पहूँचा तो
अंग्रेजोँ ने जुलूस पर अंधाधुंध गोलियां बरसानी शुरु कर दी । जिसमेँ यहाँ
के आठ वीर क्रांतिकारी सपूत शहीद हो गये । बड़हिया प्रखंड के सदायविघा
गाँव के बैजनाथ सिँह , बड़हिया इंगलिश के जुलमी महतोँ एवं बनारसी सिँह ,
बड़हिया निवासी महादेव सिँह एवं परशुराम सिँह , महसौड़ा के दारो सिँह ,
सावनडीह के झरी सिँह एवं सलौनाचक के गुज्जु सिँह की शहादत आज भी इतिहास
के पन्नोँ मेँ अंकित है । उन वीर सपूतोँ के याद मेँ मुख्यालय स्थित शहीद
द्वार के पास शहीद स्मारक अपनी बाट जोह रही है ।
आजादी की लड़ाई के क्रम मेँ यहाँ स्वामी सहजानन्द सरस्वती , डॉ श्री कृष्ण
सिँह , जयप्रकाश नारायण , गणेशद्त्त सिँह , कार्यानंद शर्मा , दीपनारायण
सिँह आदि राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विभूतियोँ का आगमन हो चुका है ।
जंग-ए-आजादी की लड़ाई के समय "हाहा" बंगला का स्थापना बड़हिया स्वतंत्रता
सेनानियोँ एवं क्रांतिकारियोँ के द्वारा 1902ई. मेँ की गई थी । यहाँ
देशभक्तोँ की गुप्त हुआ करती थी तथा रणनीतियां निर्धारित कर ऊँची इमारत
से छिपकर गोरे फिरंगियोँ पर नजर रखी जाती थी । आज बड़हिया जितनी चर्चित
धार्मिक स्थल मां बाला त्रिपुर सुंदरी मंदिर के नाम से विख्यात है उतना
देश भक्त की कुटिया हाहा बंगला से नहीँ । जबकि मंदिर के बाद कोई ऐतिहासिक
स्थल है तो वह हाहा बंगला ही है ।
पर्यटन स्थल मेँ भी लखीसराय स्थित कई ऐसे जगह है जो पौराणिक के साथ साथ
ऐतिहासिक भी है । लखीसराय से पूरब और दक्षिण पहाड़ स्थित श्रृंगीऋषि धाम
जो लखीसराय का श्रृंगार माना जाता है । कथा के अनुसार राजा दशरथ पुत्र
प्राप्ति हेतु मुनी श्रृंगीऋषि के पास आये थे और पुनः पुत्र प्राप्ति के
पश्चात मुंडन के लिए । यहाँ आज भी मुंडन और मन्नत के लिए श्रद्धालुओँ की
भीड़ जमा रहती है । लखीसराय मुख्यालय से कुछ ही दूरी पर अशोकधाम मंदिर
स्थित है ।
पौराणिक कथानुसार अशोक नाम का चरवाहा जो नितदिन गाय चराने के लिए आया
जाया करता था । अचानक एक दिन खेल खेल मेँ काला पत्थर दिखाई पड़ा ।
उत्सुकता जगी और खोदना शुरु किया पता चला बहुत बड़ा काला पत्थर से बना
शिवलिँग है । वही शिवलिँग अशोक के नाम पर अशोकधाम बन पड़ा और आज धार्मिक
स्थल व वैभवता मेँ एक पहचान कायम कर चुका है । इस प्रकार लखीसराय से कुछ
ही दूरी पर पहाड़ के तलहटी मेँ जल्लपा मंदिर है जहाँ गाय की पूजा की जाती
है । पोखरमा मेँ सूर्य मंदिर जो बहुत ही कम देखने को मिलता है वह भी
स्थित है । लखीसराय जिला अंतर्गत सूर्यगढ़ा प्रखंड कटेहर गाँव स्थित गौरी
शंकर मंदिर एवं मेदनी चौकी निकट अमरपुर मेँ रामजानकी ठाकुरवाड़ी अपनी
वैभवता के लिए चर्चित स्थान है साथ ही साथ दोनो स्थान दाह संस्कार के लिए
पूरखोँ से चला आ रहा धरोहर समान है । सूर्यगढ़ा प्रखंड के ही अंतर्गत उरैन
पंचायत जहाँ पहाड़ पर उकेरी गई महात्मा बुद्ध के रेखाचित्र के साथ इसी
उरैन मेँ मृदभाड़ प्राप्त हुआ था । इसके संबंध मेँ बताया जाता है कि यह
7वीँ से 8वीँ शताब्दी का है , जिषकी ऊँचाई 41/2फीट परिधि 10फीट और गोलाई
5फीट है । उरैन के संबंध मेँ अनेकानेक इतिहासकार , विद्वान और
पुरातत्ववेता ने अपने शोध एवं यात्रा वृतांत मेँ अंकित किया है । जिनमेँ
मुख्य रुप से विश्व प्रसिद्ध यात्री ह्रनेसांग एवं वेडैल जैसे महान
विद्वान उल्लेखनीय है । वर्ष 1950मेँ इतिहासकार प्रो. डी. सी. सरकार ने
स्वयं उरैन आकर इसकी चर्चा किया था । किँतु उस समय तक मेँ मृदभाड़ विलुप्त
हो चुका था । इसकी विलुप्तता के संबंध मेँ प्रो. राम रघुवीर आर.डी. एण्ड
डी.जे. कॉलेज मुंगेर ने भी अपनी पुस्तक "मुंगेर का ऐतिहासिक एवं
सांस्कृतिक भूगोल" मेँ उल्लेख किया है । विडंबना है कि उरैन सातवीँ से
बारहवीँ शताब्दी तक एक प्रमुख बौद्ध तीर्थ स्थल था और आज तक पुर्न उत्खनन
की चर्चातक नहीँ की जाती है ।
जहाँ तक साहित्य की बात है उसमेँ भी अपने सपूतोँ के नाम से जाना जाता है
। डॉ. कुमार विमल जिन्हेँ हिन्दी काव्य लेखन मेँ सौन्दर्यबोध के क्षेत्र
मेँ उल्लेखनीय योगदान के लिए हमेशा याद किए जायेँगे । 12अक्टूबर 1931 को
लखीसराय जिले मेँ ही पचीना गाँव मेँ उनका जन्म हुआ था । उन्होँने 40के
दशक से लेखन जगत मेँ पदार्पण किया । आलोचना पर उनकी पुस्तक "मूल्य और
मिमांसा" कविता संग्रह मेँ "अंगार" और "सागरमाथा" यादगार कृतियोँ मेँ
जगजाहिर है । अपने सेवाकाल मेँ उच्च पदोँ को
सुशोभित करते हुए इस मिट्टी को सुगंधित करने मेँ तनिक भी कोरकसर नहीँ
छोड़े । उन्होँने बिहार लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष , बिहार इंटरमीडियट
शिक्षा परिषद के अध्यक्ष और नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी के कुलपति के पद को
लखीसराय के लाल के नाम पर आसीन रहे ।
उसी राह पर लड़खराती अंदाज मेँ एक दौर था जब सूर्यगढ़ा की धरती से निकलने
वाली पत्र-पत्रिकाएँ ने अलख की चिंगारी जलाई थी । यहाँ की प्रथम पत्रिका
"कोशिश" प्रकाशित हुई थी , यह अंतर्देशीय था परंतु अर्थाभाव कहेँ या
उदासीनता के भेँट चढ़ गई । वर्ष 1994 मेँ राकेश रौशन जी ने "अक्षत" नामक
पत्रकारिता का प्रकाशन प्रारंभ किया । प्रवेशांक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
को समर्पित था । दूसरा अंक निराला को , तीसरा अंक आतंकवाद , उग्रवाद ,
नस्लवाद एवं साम्प्रायवाद के विरुद्ध संघर्ष करने वाली शक्तियोँ को
समर्पित था । अंक चार , पाँच और छः प्रकृति और नारी को तो 19991का अंक
डॉ. दीनानाथ सिँह पर केन्द्रित और उन्हीँ को समर्पित था । इस बीच
राजेन्द्र राज ने श्रृंगीभूमि के चार अंक निकाले । बाद मेँ प्रियदर्शनी
पत्र का दो अंक निकला । वर्तमान मेँ बूढ़े का लाठी के तरह सहारा बन बैठा
प्रो. लक्ष्मी प्रसाद सिँह लखीसराय टाइम्स के नाम से वर्षोँ से जुझते आ
रहे हैँ । तय है कि औरोँ के तरह स्थानिय विद्वानोँ एवं वुद्धिजीवियोँ के
उदासीनता के बजह से विलुप्त होना निश्चित माना जायेगा ।
अर्थात दृढ़ निश्चय के साथ विकास की दहलीज पर पहूँचने का सपना तभी होगा जब
मानव मेँ मानवता की पहचान लौट आवे , अपने अतीत को गौरव समझ उसे आत्मसात
करने की प्रवृति पुनः जागृत कर सके और वह तब ही संभव है जब हम सबोँ मेँ
समानता की भाव पनपे । वरना अतीत एक स्मृति बन सफेद पन्नोँ पर अंकित होने
के सिवाय कुछ नहीँ रह सकेगा ।
संजय कुमार अविनाश
युवा कथाकार मेदनी चौकी लखीसराय बिहार ।
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