एक जमाना था कि पत्रकारिता को सिर उठाकर देखने मेँ सिर पर बंधी पगरी लुढ़क
जाती थी । कारण , विद्वाणोँ की मंडली , उनके सात्विक विचार , निर्भिकता ,
सात्विक अर्थ , दबे कुचलोँ की मुंह वाणी बन खड़े थे । परन्तु आज अगर पूछा
जाए कि एक स्त्री के पतन का निम्नतम स्तर क्या है तो शायद निःसंदेह
सर्वाधिक घृणित स्वरुप वेश्या का होगा । वही हालात के पंजे तले लोकतंत्र
के चौथा स्तंभ कहे जाने वाले मीडिया के कार्यकलापोँ मेँ दिन प्रतिदिन
समानता की बात देखी जा रही है । जबकि यथार्थ है लोकतंत्र के सफलता के लिए
निष्पक्ष , स्वतंत्र और निर्भिक प्रिँट मीडिया तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया
की नितांत आवश्यकता है , किन्तु सरकारी तंत्र , लोभ , लाभ , और विज्ञापन
से प्रभावित होकर दोनो तरह की मीडिया कभी कभी दिशाहीन हो जाती है ।
निष्पक्षता के स्थान पर पक्षधरता स्थान ग्रहण कर लेती है । किसी को
अनावश्यक प्रचार का अवसर दे देना और पीली पत्रकारिता के द्वारा लोगोँ को
दिग्भ्रमित करना अपने हिस्से की बात समझ ली है ।
नहीँ तो मीडिया का तत्कालिक प्रभाव विश्वव्यापी होता है । समाज के उत्थान
के लिए , सरकार को सावधान रहने के लिए और प्रभावशाली घटना को तथा
व्यक्तित्व को उजागर करने के लिए मीडिया ही इस वैज्ञानिक युग की
अनिवार्यता है । परन्तु कुछ प्रभावशाली व्यक्ति के आगोश मेँ समाचार को
तोड़ मरोड़ कर सामने ला देते हैँ ।
संजय कुमार अविनाश
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