पगली, मैँ कैसी पगली
गोबर उठाती हूँ
सड़े-गले खाती हूँ
बिन पगार काम करती हूँ
कपड़े के बिना
अपनत्व का अभाव
अधनंगे तन की
नुमाईश करती हूँ
पगली, कैसी पगली ?
आँखेँ फार-फार कर
देखा करते हो
हँसी ठिठोली मेँ
मानव कहलाते हो
मेरा तन तुम्हेँ हँसाया
बच्चोँ को भी ललचाया
ततक्षण मौका पाकर
हमबिस्तर भी बनाया
पगली, कैसी पगली ?
अपने को श्रमसाध्य मानी
सेवा की भावना मेँ भागी
अंधेरी रात
प्रकाशमान दिवा
धूप-बरसात
मान ली निष्प्राण
लगी रही औरोँ की काम
पगली, कैसी पगली ?
दवा के बिना
अन्न के बिना
अपनोँ के बिना
स्वतंत्रता की चाह मेँ
स्वाधीनता के अभाव मेँ
कहलाती हूँ
पगली, पगली, पगली !
तन से
मन से
कपड़ोँ से
सगा-संबंध से
अपनत्व से
इसलिए कि मैँ तुम्हेँ न मानी !
प्रकृत को मानी
कर्त्तव्य को समझी
अधिकार पहचानी
सड़क-चौराहे
गली-मुहल्ले
रात अंधेरी
चलती रही
भागती रही
आखिर कर
पगली कहलाई !
सोच ! समझ !
पुरुषार्थ को
नारीत्व को
भावना को
निर्मात्री को
जननी को !
हर तन मेँ ,
मन मेँ ,
कण-कण मेँ ,
मैँ ही हूँ
पगली , पगली ,
हाँ पगली !!
संजय कुमार अविनाश
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