किस भावेश मेँ प्रीतम दूर क्षितिज से भू-पर आई ,
तप्त हृदय को नीलगगन मेँ शमा-सी लहराई ,
मूंद अपना नयन औरोँ को शीतल बनाई ,
दीवाकर की लौ से धरा पर रौशन पहूँचाई ।
किस भावेश मेँ प्रीतम नभ मेँ कलरव दिखलाई ,
उसी हृदय की मधुर-ध्वनी-से मैँ को ऊँची बांध बनाई , सामने पड़ा हिम-शिखर
को पास रख तड़पाई ,
ध्वनी-वेग की आहट ने मन मैल बिखराई ।
किस भावेश मेँ प्रीतम दूर क्षितिज से उतर आई ,
नर-पुंज पर भीगी आंख लड़ाई ,
श्मशान की राह पर कंकाल कहलाई ,
शांत धारा को आसन्न बनाई प्रीतम की कलरव को डगमगाई ,
दूर क्षितिज से भू-पर आई अम्बर-सी ले गहराई ।
कैसी ममत्व शिथिल काया से उड़ गगन मेँ ललचाई ,
रव से मांग सका न किनारा मन-ही-मन रुलाई ,
नारी मन की कर्तव्य निभाई देव दानव की मंथन से आई ,
किस भावेश मेँ प्रीतम दूर गगन से भू-पर आई ।
संजय कुमार अविनाश
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