Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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वनिता

 

वनिता ! वारांगना ! वेश्या !
हाँ , मैँ भारतेन्दु की वनिता हूँ
इन्द्र की अप्सरा !
गर्व है मुझे वेश्या सुनने मेँ
करती आई हूँ बिस्तर की रखवाली
जिस्म खरोँची जाती है
तुम अधनंगे जमीर से
फिर भी चुप रहती हूँ
अपनी माँ -बहन की देख तस्वीर से !

 

ऊँचे-ऊँचे मंचो पर दहार
लगाते हो ,
नारियोँ की हक के खातिर
मशाल जलाते हो
वही कुर्त्ते पायजामा रात के
अंधेर गलियोँ मेँ
जिस्म को रौँदते नजर
आते हो !
किसी ने मुझे भरमाया
किसी ने चोटी दिखाया
सजा मिली विरह और हवसी से
रात मेँ दूल्हन , दिन मेँ विधवा
हर दिन सौँदर्य से
खेली --- !
हाँ, मैँ वेश्या कहलाती हूँ
जितने मर्दोँ ने भोग लगाया
उतनी बहनोँ की इज्जत बचाया
तब भी समाज मेँ कोढ़ कहलाई !
माँ की कर्त्तव्य भी भूल बैठी
जब मैँने एक बिटिया जन्मी
बहशी नजरोँ की साया से छुपाई
यही सोच उसे खंजर लगायी
ममता को उजाड़ , नादान को मार
ममत्व को बिगाड़ी-- !

 

हाँ , मैँ वेश्या हूँ -- !
कुछ तो अपनो से घबड़ाती
कुछ घुट-घुट कर मर जाती
समाज की बन
तुम बहनोँ को बचाती
मर्दोँ से अठखेलियां कर
माँ , बहनोँ की लाज बचाती
मैँ उसे भरमाती हूँ
गंदे दल-दल मेँ भी
अप्सरा कहलाती हूँ !!

 



संजय कुमार अविनाश

 

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