एक जमाना था कि पत्रकारिता को सिर उठाकर देखने मेँ सिर पर बंधी पगरी लुढ़क
जाती थी । कारण विद्वानोँ की मंडली , उनके विचार , निर्भिकता , सात्विक
अर्थ , दबे-कुचलोँ की मुंहवाणी बन खड़ा थे । आज अगर पुछा जाए कि एक स्त्री
के पतन का निम्नतम स्तर क्या है , तो शायद नि:संदेह सर्वाधिक घृणित
स्वरुप वेश्या का होगा । वेश्याओँ के बिषय मेँ कहा जाता है कि उनका कोई
चरित्र नहीँ होता । वो कभी किसी की गोद मेँ जा बैठती है तो कभी किसी और
की गोद मेँ ।
वही हालात के पंजे तले लोकतंत्र के चौथा स्तंभ कहे जाने वाले मीडिया के
कार्यकलापोँ मेँ दिन प्रतिदिन समानता की बात देखी जा रही है । जबकि
यथार्थ है लोकतंत्र के सफलता के लिए निष्पक्ष , स्वतंत्र और निर्भिक
प्रिँट मीडिया तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की नितांत आवश्यकता है , किन्तु
सरकारी तंत्र , लोभ , लाभ , और विज्ञापन से प्रभावित होकर दोनो तरह की
मीडिया कभी कभी या कहेँ प्रायः दिशाहीन हो चली है । निष्यक्षता के स्थान
पर पक्षधरता आ गई है । किसी को अनावश्यक प्रचार का अवसर दे देना और पीली
पत्रकारिता के द्वारा लोगोँ को दिग्भ्रमित करना अपने हिस्से की बात समझ
ली है । नहीँ तो मीडिया का तत्कालिक प्रभाव विश्वव्यापी होता है । समाज
के उत्थान के लिए , सरकार को सावधान रहने के लिए मीडिया ही इस वैज्ञानिक
युग की अनिवार्यता है ।
मीडियाकर्मी अपना परिचय इतना तोड़-मरोड़ चुका कि अखवारी हिन्दी न तो
साहित्य के लिए और न ही प्रबुद्धजनोँ के लिए बल्कि उसमेँ आकर्षण पैदा
करने के लिए समाचार के शीर्षकोँ को चौकाने वाला बनाया जा रहा है । उन
पाठकोँ और दर्शकोँ को ध्यान निश्चित रुप से टेढ़े-मेढ़े , अनगढ़ तथा आकर्षक
शीर्षकोँ की ओर जाना सिर्फ सुनिश्चित करता है ।
सिर्फ इतना कहने मात्र से हिन्दुस्तान की छवि को नही परोसा जा सकता है ,
बल्कि हिन्द और हिन्दी को बचाने के लिए सारगर्भित कथन का उपयोग कर अपने
धार्मिक अतीत को कायम रखा जा सकता है । ऐसा न कि अपनी अखवार बेचने के लिए
कई मानवीय सोच पर कुठाराघात करते भाव का परिचय देँ जैसे "इंडिया ने
पाकिस्तान को रौँदा" यह कोई कारगिल युद्ध नहीँ बल्कि एक खेल है जो
भाईचारा के तहत खेला गया जिसमेँ एक टीम ने दूसरी टीम से पराजय हुई । बीते
वर्ष इसी तरह की वाकया पर विस्तृत चर्चा हुई ।
माई लार्ड , बिहार के मुंगेर मुख्यालय मेँ एक वेश्यालय है । यह लालबत्ती
क्षेत्र के नाम से जाना जाता है । वेश्याएँ देह बेचकर अच्छी अच्छी
साड़ियां पहनती हैँ । दरबाजे पर खड़ा होकर ग्राहकोँ को लुभाती हैँ और
अर्जित कमाई से अपने बच्चोँ को ऊँची शिक्षा भी दे रही हैँ । ठीक विपरीत ,
बिहार मेँ प्राय: सभी प्रिँट मीडिया , न्यूज एजेँसियो और न्यूज चैनलोँ
{कुछ को छोड़कर} के राज्य मुख्यालय , जिला मुख्यालय और प्रखंड मुख्यालय के
संवादाता/स्ट्रिंगर अपना ईमान बेचकर भी वेश्याओँ से बद्त्तर जिन्दगी जी
रहे हैँ । इन स्ट्रिँगर/संवादाताओँ को न पहनने को अच्छा वस्त्र है , न
भरपेट भोजन की व्यवस्था । बाल-बच्चोँ को ऊँची शिक्षा देने की बात महज
सपना है । मीडिया जगत के नियोजकोँ नेँ आजादी के बाद से अब तक प्रजातंत्र
के इस मजबूत और शक्तिशाली स्तंभ को भ्रष्ट और बेहद कमजोर बना दिया है ।
उद्देश्य है राष्ट्र को कमजोर करना और अपनी पूंजी मेँ वृद्धि करना ।
आप जानकर अचंभित होँगे कि बिहार मेँ दैनिक हिन्दुस्तान , दैनिक जागरण के
साथ साथ अन्य हिन्दी और अंग्रेजी दैनिकोँ के संपादकोँ से लगायत
स्ट्रिँगरोँ तक को नियोजकोँ ने न कोई नियुक्ति पत्र दिया है और न ही
मीडिया का परिचय पत्र । न ही कोई एकरारनामा कराया है । श्रम कानून के तहत
संपादक से स्ट्रिंगर तक सेवा पुस्तिका का संधारण जरुरी है जो बिल्कुल ही
नहीँ किया जा रहा है । श्रमजीवी और गैर श्रमजीवी पत्रकारोँ के लिए देश भर
मेँ लागू वेज वोर्ड के वेतन और अन्य सुविधाओँ से संबंधित सारी सुविधाएँ
कोरपोरेट मीडिया के मालिकोँ के पैरोँ के नीचे कुचल दी गई है । बिहार मेँ
श्रम विभाग का संचालन सरकार न कर कोरपोरेट मीडिया के मालिक कर रहे हैँ ।
श्रम विभाग सरकारी विज्ञापन मेँ संगठित और असंगठित मजदूरोँ के वेतन और
अधिकार की जानकारी छपती रहती है ।
परन्तु आजतक पत्रकारोँ और गैर पत्रकारोँ के वेतन और अन्य सुविधाओँ से
संबंधित श्रम कानूनोँ की जानकारी न तो बिहार सरकार , न ही केन्द्र सरकार
ने विज्ञापन के जरिए प्रकाशित करती है ।
सबसे घृणित कार्य मीडिया मेँ यह हो रहा है कि संपादक से लेकर स्ट्रिँगर
तक सभी अपने नियोजकोँ के लिए विज्ञापन जुटाने और विज्ञापन से मिलने वाले
कमीशन के लिए सुबह से शाम तक भटकते रहते हैँ ।
उपयुक्त तथ्योँ को लिखित रुप मेँ भारतीय प्रेस परिषद जांच कमिटी के समक्ष
मुंगेर के राज पैलेस होटल मेँ 12जून 2012 को जिला के वरिष्ठ पत्रकार ,
छायाकार और अधिवक्ता ने रखा ।
न्यायमूर्ति श्रम न्यायलय के दस्तावेजोँ के आधार पर पत्रकारिता के सछ ?
से पूरी तरह अवगत कराया गया । दस्तावेजोँ से यह भी बात सामने आई है कि
अखवार मेँ रहने या हटने के पीछे मात्र एक ही फैक्टर काम करता है । और वह
फैक्टर बन गया है कौन व्यक्ति कितना अधिक राशि विज्ञापन लूटकर नियोजक के
लिए उपलब्ध कराता है ।
इस विपरीत परिस्थिति मेँ संवादाताओँ और स्ट्रिँगर के सामने कोई विकल्प
नजर नहीँ आ रहा है । परिणाम स्वरुप अखवार , न्यूज एजेँसी और न्यूज चैनलोँ
के लिए भाषा और साहित्य ज्ञान कोई खाश अर्थ नहीँ रखता है । पत्रकारोँ की
योग्यता केवल विज्ञापन संग्रहण करने की क्षमता से आंकी जा रही है । और
विज्ञापन वहीँ से मिलती है जहाँ लूट-खसोट की व्यवस्था प्रयाप्त मात्रा
मेँ हो । विचौलियोँ के संगठन मेँ खुद को रखकर , पत्रकारिता का धौँस
दिखाकर , पक्षधरता की वखूबी ज्ञान रखकर , जो नियोजकोँ के द्वारा अखवार
बेचने का माध्यम बन बैठा । जो लक्ष्य नहीँ पुरा करता है , वह दूसरे माह
मैदान के पीच से आउट या कहेँ अखवारी अंदाज मेँ "नियोजकोँ ने पत्रकारोँ को
रौँदा ।"
अथार्थ , हिन्दी और भाषायी ज्ञान , लेखनी की ताकत और लेखनी की शैली से
कोरपोरेट मीडिया हाउस को अब कोई लेना देना नहीँ रह गया । उन्हेँ अब केवल
विज्ञापन बटोरने वाले नया और ताजा खून चाहिये । जो प्रत्येक दिन समाचार
से अवगत होते आ रहे हैँ । भाषायी ज्ञान , समाचार पत्रोँ मेँ शीर्षक ,
समाचारोँ को तोड़-मरोड़ कर रखना आदि जीवन यापन के माध्यम बन गया । उचित
मान-सम्मान खोते हुए दबंगोँ के शरण मेँ रहना पत्रकारिता का एक हिस्सा मान
बैठा । इस तरह के क्रिया-कलापोँ से उस कोठे से कम नहीँ जहाँ दबंगो , पैसे
वालोँ का सिर्फ जगह हो । बाकि दरबाजे के बाहर ।
संजय कुमार अविनाश
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