रात का आधा पहर बीत चुका था। मैं सोने की सेकड़ो कोशिशे करके हार गया था। कभी इस करवट कभी उस करवट, तो कभी रजाई से अपने को ढंक लेता था पर आँख न लगती थी। जाड़ा ऐसा कि खून भी जम के बरफ बन जाएं। मीलों दूर से भौकतें हुए कुत्तो की आवजें मेरे कानों में पड़ रही थी और जबरा की याद मेरे मन में ताजा हो गई थी जो कि 'पूस की एक रात' का पात्र है। अचानक मैं उठा और अपनी मेज़ पर बैठ गया और मुंशीजी की 'सवा सेर गेंहू पढ़ने लगा। मैं ये कहानी पहलें भी कई दफा पढ़ चुंका था लेकिन मन न भरता था। बस्ती में सन्नाटा पसरा था और सड़कों पर सिर्फ कुत्तों का राज था। झींगुरो की आवाजें रात को और भी डरावना बना रहीं थी। शीतलहर का प्रकोप ऐसा था कि रोम-रोम जाड़े के कारण खड़ा हो जाता था।
मैंने कहानी आधी ही पढ़ी थी कि एकाएक मेरी निगाह एक चींटी पर पड़ी जो शायद अपने घर जा रही थी। चींटी एक वीर की तरह आगे बढ़ रही थी, उसे किसी तरह का कोई भय न था। वह एकदम निडर थी। मैं उस चींटी के साथ खेलने की सोची, मैंने चींटी के पथ में एक कलम रख दी। चींटी थोड़ी घबराई मगर डरी नहीं और उसे पार कर अपने पथ पर आगे बढ़ गई। मुझे अपनी पराज्य का बोध करा के किसी वीर पुरूष की भांति अपने पथ पर अग्रसर थी। मैं चींटी के साहस के सामने बौना पड़ गया और मैंने चींटी पर जमके फूंक मार दी। मगर चींटी ने अपने आप को किसी चट्ठान की भांति मजबूत कर लिया और वह टस से मस न हुई अपितु मजबूती से अपने स्थान पर बनी रही और मुझे अपनी हार की अनुभिूति कराती रही। चींटी थोड़ी आगे बढ़ी थी कि मैंने एक बार फिर से कलम उसके सामने पटक दी। इस दफा भी चींटी कलम पर चढ़कर निकल गई और मैं फिर से पराजित हो गया। मैं चींटी के साहस और दृढ़निश्चिता के आगे हर बार हार रहा था और यही उसकी जीत का कारण था, नही तो एक अदनी सी चींटी इंसान के सामने है ही क्या ?
चींटी साहस और दृढ़निश्चिता से लबरेज़ थी और आसानी से हार मानने वालों में से न थी। कोई बहुत बड़ी बलवान मालूम पड़ती थी। इस बार मैंने चींटी के सामने एक बड़ी सी किताब रख दी, लेकिन इस बार चींटी उस किताब पर चढ़ी नहीं बल्कि घूमकर उसे पार कर लिया। मैं समझ चुका था चींटी बहुत दिमागदार है। जब मैं उसके सामने कोई छोटी बाधा पैदा करता तो वह उसे लांघ जाती और अपने बल का परिचय देती थी और जब मैं कोई बड़ी बाधा उसके रास्ते में लाता तो अपनी बुद्धि से काम लेती। अब ऐसा लग रहा था मानो कि चींटी मेरी परीक्षा लेने पर उतर आई थी और कह रही थी कि तुम जो भी कर लो मैं डरने वाली नहीं। इस तरह आधी रात बीत गई किन्तु चींटी ने हार न मानी और मैं हार गया। सब कुछ छोड़कर बिछौने पर वापस आ गया और वो चींटी मेरे दिमाग में घूमती रही और कब मेरी आँख लग गई पता ही न चला। जब होश आया तो सुबह हो चुकी थी।
संजय कुमार
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