"आज फिर दिख रहा है शहर में उदास कोई,
लगे है, आज यहाँ फिर उठी है लाश कोई,
भेड़ की खाल में भेड़िये, मुखौटे इन्साँ के,
यहाँ कैसे करे इन्सान की तलाश कोई,
दिन-ब-दिन दूर वो हुए, जिन्हें अपना कहता,
लानत है, शब में, ख़्वाब में भी नहीं पास कोई,
अजीब सख़्त संग से भरी है ये दुनिया,
बुत-ए-फ़रिश्ता यहाँ कैसे सके तराश कोई,
पीना मुश्क़िल है यहाँ आब-ए-हक़ीकत अब तो,
लगे जैसे हलक़ में खिंच गई, ख़राश कोई,
कितने परदों के पीछे रख दिया गया इन्साँ,
किसमें है दम जो कर सके है पर्दाफ़ाश कोई,
अरे! लिखते हो, कुछ भी लिख के, सुना देते हो,
लिखो तो, 'राज़' की सी सूफ़ी ग़ज़ल काश कोई,
यूँ तो मिलते हैं, ज़माने में लोग, रोज़ यहाँ,
या ख़ुदा! उनमें "राज़" सा मिले बिंदास कोई।।"
संजय कुमार शर्मा 'राज़'
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