Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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बाबू जी,...

 

 

mygodfather

 

"दोनों हाथों में झोले भर कर सब्ज़ी लाते बाबू जी,
आम-सेब-केला ला कर वो रोज़ खिलाते, बाबू जी,

 

मेरे लिए सदी के नायक और मेरे आदर्श वही,
बड़ी सुबह से मेहनत करते, रोज़ कमाते, बाबू जी,

 

सुबह योग-व्यायाम का समय, अब भी चालीस के लगते,
दंगल में शिरक़त कर सबको धूल चँटाते, बाबू जी,

 

प्रतिदिन ब्रह्ममुहूर्त में उठें, दिनचर्या प्रारम्भ करें,
पौ फटने से पहले, मेरे, रोज़ नहाते बाबू जी,

 

मुझे तैरना ज़हमत लगता, पानी से डर लगता है,
अपने हाथों में ले कर मुझको तैराते, बाबू जी,

 

बिजली के झालर, आम के तोरण, केले के पत्तों से,
द्वार बना कर रंगोली से स्वयं सजाते, बाबू जी,

 

कृत्रिमता से अलग-थलग, निर्वाह परम्परा का करते,
हम बच्चों के संग मिट्टी के दिए जलाते, बाबू जी,

 

ख़ूब पटाख़े और मिठाई, दीप-बताशे-खील खरीदें,
दीवाली हम बच्चों के संग, ख़ूब मनाते, बाबू जी,

 

पतंग बनाते रंग-बिरंगे कागज़ से, मंझा करते ,
छत पर जा, हम बच्चों के संग पतंग उड़ाते, बाबू जी,

 

कभी मूर्तियाँ गढ़ते बैठे, कभी तूलिका-रंग लिए,
अजब-ग़ज़ब व्यक्तित्व समेटे, चित्र बनाते, बाबू जी,

 

लाते रंग-गुलाल सभी के लिए साथ पिचकारी के,
होली के दिन सबसे पहले रंग लगाते, बाबू जी,

 

जब मीना बाज़ार लगे या सर्कस आए, मेला हो,
अपने कंधों पर बैठा कर, हमें घुमाते, बाबू जी,

 

प्रकृति प्रेम उनका अद्भुत, हरियाली की पूजा करते,
तब मेरे हर जन्म दिवस पर, पेड़ लगाते, बाबू जी,

 

नागपंचमी पर आरोहण, हम, पर्वत का करते हैं,
हमें साईकिल पर बैठा, दलहा ले जाते, बाबू जी,

 

उनका आशीर्वाद, बड़ा घर अन्न-धनों से भरा हुआ,
जब सारे बच्चे खा लेते, तब हैं खाते बाबू जी,

 

पोते-पोती, बेटे-बहुओं से घर ज़न्नत जैसा है,
अपने भोलेपन से सब के मन को भाते बाबू जी,

 

हिन्दी-अंग्रेज़ी में माहिर, नाटक के शौक़ीन बहुत,
मंच-साँस्कृतिक कार्यक्रमों में रंग जमाते, बाबू जी,

 

उन सा वक्ता अन्य, मेरी दृष्टि में, कोई और नहीं,
गीता-रामायण, चौपाई, हमें पढ़ाते, बाबू जी,

 

राम-लला के भक्त पिताजी, प्रतिदिन चालीसा पढ़ते,
संग भारी सिन्दूर, चमेली तेल चढ़ाते, बाबूजी,

 

जब माँ कहतीं,' अजी। बाल रंग लीजे तनिक सफ़ेद लगें।'
कुछ मुसकाते, कुछ हँसते फिर कुछ शरमाते, बाबू जी,

 

तम्बाखू से तौबा, गुटखा छुएँ नहीं, गंदा कह कर,
बड़े शौक़ से प्रतिदिन मीठा पान चबाते, बाबू जी,

 

पिए हुए सब दिखते जग में, भाँति-भाँति के नशे यहाँ,
पर मदिरा को माया कह कब हाथ लगाते बाबू जी,

 

जब उलझन का दौर कोई आ खड़ा सामने लगता है,
तभी अचानक ताक़त बन, ज़ेहन में आते, बाबू जी,

 

कोर्ट-कचहरी के मसले हों या कुछ पेंच लगे जीवन में,
आसानी से जाने कैसे सब निपटाते, बाबू जी,

 

जल कर हो या बिजली के बिल आरोपित, कुछ पता ना चले,
सही समय पर निर्धारित सब शुल्क पटाते, बाबू जी,

 

बड़े हो गए हम अब भी उनकी नज़रों में बच्चे हैं,
कैसी भी ग़लती कर बैठें, कब ग़ुस्साते, बाबू जी,

 

यह जीवन अनजान डगर है, धोखे पग-पग बिछे हु्ए,
कैसी भी मुश्क़िल से बचने, राह दिखाते बाबू जी,

 

ऊहापोह की दुनिया में हम रह-रह कर घबरा जाते,
पर फौलादी सीने वाले, कब घबराते, बाबू जी,

 

कभी घरेलू खट-पट पर, हम बेटे झल्ला जाते हैं,
पर शिव मेरे भोले बाबा, कब झल्लाते, बाबू जी,

 

'राज़' सत्य जीता करता है, नेक़ी पूजी जाती है,
जीवन के आधारभूत सब तथ्य बताते, बाबू जी।।"

 

 

 

संजय कुमार शर्मा 'राज़'

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